जलवायु परिवर्तन से सभी प्रभावित होंगे. मगर इसका असर सभी तबके पर बराबर होगा यह कहना इसके दुष्प्रभावों का सरलीकरण करने जैसा है. यूनाईटेड नेशन्स (विमेन) के अनुसार इस सदी के मध्य तक क्लाइमेट चेंज के चलते 158 मिलियन और महिला एवं लड़कियाँ गरीबी का शिकार हो जाएँगी. यह पुरुषों के मुकाबले 16 मिलियन अधिक है. ऐसे में यह कहना ज़रूरी है कि महिलाएँ इस वैश्विक संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगी.
हाल ही में सीओपी 28 के दौरान दुनिया के तमाम देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए रणनीति बनाने के लिए दुबई में इकठ्ठा हुए. मगर इस दौरान राष्ट्राध्यक्षों की जो समोहिक तस्वीर सामने आई उसमें महिला राष्ट्राध्यक्षों को खोजने के लिए आपको आँख गड़ाकर देखना पड़ेगा. मगर यह कोई संयोग नहीं है कि क्लाइमेट एक्शन को लेकर होने वाली डिसीजन मेकिंग में महिलाएँ न के बराबर हैं. इससे पहले आयोजित COP 27 में 110 लीडर्स में से केवल 7 महिलाएँ ही थीं.
अछूता ग्लोबल नॉर्थ एवं महिलाएँ
जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया के पिछड़े हिस्से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं. इनमें छोटी अर्थव्यवस्था वाले देश तो शामिल हैं ही साथ ही भारत जैसे मझली अर्थव्यवस्था वाले देशों के ग्रामीण हिस्से में रहने वाली औरतें भी शामिल हैं. छत्तीसगढ़ में ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया की असोसिएट डायरेक्टर नीरजा नितिन कुडीमोत्री ग्राउंड रिपोर्ट के सवालों का जवाब देते हुए कहती हैं कि ग्लोबल साऊथ की ज़्यादातर आबादी कृषि और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है. साथ ही दुनिया का यह हिस्सा गरीबी और भुखमरी से भी बुरी तरह प्रभावित है. वह कहती हैं कि क्लाइमेट चेंज का पूरा डिस्कोर्स आम तौर पर बेहद वैज्ञानिक बातों से भरा हुआ है एवं इस डिस्कोर्स में ग्लोबल नॉर्थ का प्रभुत्व ज़्यादा है. उनके अनुसार इसका परिणाम यह होता है कि ग्रामीण मुद्दे ग्लोबल पर्सपेक्टिव का हिस्सा नहीं बन पाते हैं.
सूखे से प्रभावित होती महिलाएँ
ग्रामीण इलाकों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बाढ़, सूखे और फ़सलों के ख़राब होने से मापा जाता है. इन आपदाओं के दौरान महिलाएँ ही सबसे ज़्यादा प्रभावित नज़र आती हैं. विमेन क्लाइमेट कलेक्टिव की वर्षा रैकवार भारत के ग्रामीण इलाकों का उदाहरण देते हुए बताती हैं कि
"सूखे की स्थिति में आम तौर महिलाओं को अपने घर से मीलों दूर स्थित जलाशयों से पानी लाना पड़ता है ऐसा उन्हें दिन में कई बार करना पड़ता है. घर का सारा काम करना और पानी के लिए इस तरह से भटकना महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है. "
दुनिया भर में जलाशयों से पानी लाने की ज़िम्मेदारी सँभालने वाले लोगों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या दोगुनी है. एक अनुमान के मुताबिक 10 में से 7 घरों में पानी लाने की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर होती है. गौरतलब है कि विश्वभर में 1.8 बिलियन लोग ऐसे हैं जिनके घरों में पानी की सुविधा उपलब्ध नहीं है.
लू से प्रभावित महिलाएँ
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार साल 2022 का मार्च महीना साल 1901 से तब तक का सबसे गर्म महीना था. इस दौरान भारत में 25 और पाकिस्तान में करीब 65 लोगों की मौत हुई. वर्षा बताती हैं कि "लू (heat stocks) के चलते महिलाओं में उल्टी, चक्कर आना और माँसपेशियों में खिंचाव सहित कई गंभीर समस्या भी आती हैं जिससे उनकी जान को भी ख़तरा हो जाता है." आंकड़ों के अनुसार साल 2001 से 2005 के बीच लू के चलते 849 महिलाओं की मौत हुई थी जो 2011 से 2015 के बीच बढ़कर 1254 हो गई.
पानी के साथ ही खाने की कमी भी महिलाओं पर पड़ने वाले इस दुष्प्रभाव को बढ़ा देता है. वर्षा कहती हैं,
“जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों से होने वाले मुनाफ़े में कमी आई है. इसका मतलब है घर में खाना कम होगा. पुरुष पहले खाएँगे बाद में महिलाएँ बचा हुआ खाना खाएँगी.” इससे उनका पोषण बुरी तरह प्रभावित होता है.
पुरुषों पर पड़ने वाले प्रभाव का स्त्री पक्ष
इन परिस्थितियों के अलावा तूफान और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से महिलाएं सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं. स्वतंत्र पत्रकार शुचिता झा कहती हैं कि ग्रामीण परिवेश में ज़्यादातर महिलाएँ पुरुषों पर निर्भर होती हैं. ऐसे में पुरुषों की आजीविका पर संकट आने पर सबसे पहले महिलाओं की आवश्यकता को ही कम किया जाता है. उदाहरण देते हुए वह कहती हैं, “अगर पिता की आमदनी कम होगी तो सबसे पहले लड़की की शिक्षा ही बंद करवाई जाएगी लड़के की नहीं.”
महिला नेतृत्व का सवाल
जैसे किसी भी घर में होने वाले प्रमुख निर्णयों में आम तौर पर महिलाएँ निर्णयकर्ता नहीं होती हैं. वैसे ही ग्लोबल क्लाइमेट डिस्कोर्स में निर्णयकर्ताओं में महिलाओं की भागेदारी न के बराबर है. यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार यूरोपीय यूनियन के 45 प्रतिशत पुरुष और 60 प्रतिशत महिलाएँ यह मानती हैं कि यदि महिला नेतृत्वकर्ताओं को महत्वपूर्ण राजनैतिक ज़िम्मेदारियाँ दी जाएँ तो क्लाइमेट चेंज के खिलाफ लड़ाई और भी प्रभावी हो सकती है. इन स्थानों में महिलाओं का नेतृत्व सुनिश्चित करने पर शुचिता कहती हैं कि हर देश को यह तय करना पड़ेगा कि वहां महिलाएँ राजनैतिक रूप से नेतृत्व करने की स्थिति में हों.
“जितने भी विकसित देश हैं वो पितृसत्ता से ग्रसित हैं. जिसके चलते उन्हें शिक्षा और नेतृत्व के मौकों दोनों से ही वंचित रखा गया है. जब तक यहाँ यह स्थिति में सुधार नहीं होगा तब तक ग्लोबल स्तर पर वह दिखाई नहीं देगा.”
महिलाओं के नेतृत्व से क्या बदलेगा?
यूरोपियन इन्वेस्टमेंट बैंक की सीनियर जेंडर स्पेशलिस्ट कारमेन नीथेमर (Carmen Niethammer) कहती हैं,
“क्लाइमेट चेंज बेहद सेक्सिस्ट है….हमें यह तय करना होगा कि हमारे क्लाइमेट सॉल्यूशन सेक्सिस्ट न हों.”
इंटरनेशनल यूनियन फ़ॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (IUCN) के अनुसार महिलाएँ अडाप्टेशन में मददगार हो सकती हैं. महिलाओं से यह सीखा जा सकता है कि बदलते हुए वातावरण में किन चीज़ों को अपनाना बेहतर हो सकता है.
महिलाओं का नेतृत्व सुनिश्चित होने पर माहवारी से लेकर घरेलू हिंसा तक सभी मुद्दे प्रमुखता से क्लाइमेट सॉल्यूशन का भाग बनाए जाएँगे. इससे इन बातों को और भी इन्क्लूसिव बनाया जा सकेगा. ग्लोबल ऐड ऑर्गनाईजेशन द्वारा सोमाली के गावों में महिलाओं को व्यापार के लिए ट्रेनिंग प्रदान की गई. ट्रेनिंग करने वाली औरतों ने अपने गाँवों में स्वसहायता समूह बनाए और सहकारी समिति की तरह पैसे जमा किए. इसका इस्तेमाल उनके द्वारा साल 2016 में पड़े अकाल में अपने समुदाय की मदद करने के लिए किया गया.
अब इस उदहारण के साथ वैश्विक परिदृश्य को यदि देखें तो समझ आता है कि कैसे महिलाओं के पास ताकत होने पर न सिर्फ ग्रामीण इलाकों की इन महिलाओं के सशक्त समूहों की रचना की जा सकेगी बल्कि और भी ऐसे उपाए निकाले जा सकेंगे जहाँ महिलाओं को क्लाइमेट चेंज के इन दुष्प्रभावों से बचाने के लिए विशेष प्रबंध किए जा सकें.
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