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अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में हुआ ‘Forest Of Life’ फेस्टिवल का आयोजन 

भोपाल में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में ‘Forest Of Life’ उत्सव का आयोजन किया गया. यह उत्सव भारत के जंगलों पर मंडराते खतरों को दिखाने के लिए था.

By Shishir Agrawal
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भोपाल में नव स्थापित अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में ‘Forest Of Life’ उत्सव का आयोजन किया गया. यह उत्सव भारत के अलग-अलग जंगलों की विविधता और उन पर मंडराते खतरों को दिखाने के लिए था. 16 से 21 जनवरी तक आयोजित इस आयोजन में सात दिनों में सरकारी व निजी स्कूलों के लगभग 600 बच्चे और 50 शिक्षकों ने शिरकत की. आयोजन पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सातवीं कक्षा के एक छात्र ने कहा, “इस प्रदर्शनी से गुजरने के बाद लगा कि जैसे हम पूरे भारत की यात्रा कर आए हों.” वहीं एक शिक्षक ने अनुसार,

“यह हमारे दिमाग की खिड़कियाँ खुलने जैसा अनुभव रहा. भारत का विशाल भूगोल जंगलों से बना है और हमारे जंगलों के स्वस्थ होने से ही हम स्वस्थ रहेंगे”.  

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Forest Of Life: उदय से लेकर अब तक की यात्रा को दिखाती प्रदर्शनी

इस दिन मुख्य वक्ता के तौर पर देश के महत्वपूर्ण अध्येयता एडवोकेट अनिल गर्ग ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया. उन्होंने जंगलों पर सरकारी और मानवीय दखल के चलते बढ़ते खतरों को रेखांकित किया. इसके अलावा यहाँ उपस्थित सभी दर्शकों ने विश्वविध्यालय के इंटर्न्स द्वारा लगाई गई प्रदर्शनी का भी अवलोकन किया. इस प्रदर्शनी में जंगलों के उदय से लेकर अब तक की यात्रा को सिलसिलेवार ढंग से दिखाया गया. गौरतलब है कि विश्वविद्यालय के लगभग 108 युवा शोधार्थियों ने देश के अलग-अलग जंगलों में अपना शोध करके इस प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था. 

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श्रीनगर के मुज़ाबिल भट ने हांगुल की वर्तमान स्थिति का दस्तावेज़ीकरण किया है

कश्मीर के जंगलों से गायब होता हांगुल

सेंट्रल एशियन रेड डियर की उप प्रजाति कश्मीरी हांगुल एक विशेष जानवर है. साल 1940 में इसकी कुल संख्या 8 हज़ार के क़रीब थी जो 1970 तक घटकर 150 हो गई थी. 2019 में हुई गणना के अनुसार अब केवल 237 हांगुल ही बचे हैं. यह प्रजाति अभी मुख्य रूप से कश्मीर के दाशिगाम राष्ट्रिय उद्यान में पाया जाता है. मुज़ाबिल भट ‘Forest Of Life’ इन्टर्न के रूप में इस जानवर की वर्तमान स्थिति का दस्तावेज़ीकरण कर रहे थे. वह हमसे बात करते हुए कहते हैं,

“हांगुल एक शर्मीले स्वभाव का जानवर है. यह 5500 से 6000 मीटर के एल्टीट्यूड पर पाए जाते हैं.”

मुज़ाबिल कहते हैं कि हांगुल एक लुप्तप्राय प्रजाति है. कई जानवर इससे भी बुरी हालत में हैं. ऐसे में इसे बचाने के लिए हमें जंगलों की बढ़ती कटाई पर रोक लगाना पड़ेगा. 

जलवायु परिवर्तन ने महुआ के उत्पादन को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है.
नेहा के अनुसार जलवायु परिवर्तन ने महुआ के उत्पादन को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है.

क्लाइमेट चेंज की मार झेलता महुआ

महुआ एक ऐसा वनोत्पाद है जिसपर मध्यप्रदेश और अन्य पडोसी राज्यों के आदिवासियों का जीवन निर्भर करता है. मध्यप्रदेश में गोंड और कोरकू जनजाति द्वारा इन्हें जंगल से चुनकर इसका उपयोग और व्यापार किया जाता है. मगर बीते कुछ सालों में जलवायु परिवर्तन ने इसके उत्पादन को तेज़ी से प्रभावित किया है. एक अन्य इन्टर्न नेहा उन्हाले कहती हैं,

“यहाँ के आदिवासियों के अनुसार पहले वह एक पेड़ से एक सीज़न में 1 से 2 क्विंटल महुआ निकाल लेते थे जो अब केवल 50 से 70 किलो ही हो पाता है.” 

अख्तर हुसैन के अनुसार हमें जंगलों को कटने से रोकना होगा और मानव और जानवर के बीच सीमा का चिन्हांकन करना होगा
अख्तर हुसैन के अनुसार हमें जंगलों को कटने से रोकना होगा और मानव और जानवर के बीच सीमा का चिन्हांकन करना होगा

कोंदबल : बढ़ता एनिमल-ह्ययूमन कंफ्लिक्ट और आजीविका का संकट

जम्मू और कश्मीर के गान्दरबल ज़िले के अंतर्गत आने वाला कोंदबल मानसबल झील और यहाँ होने वाले चूने के उत्पादन के कारण जाना जाता है. यह एक वन आच्छादित क्षेत्र भी है जहाँ तेंदुआ और भालू जैसे जंगली जानवर पाए जाते हैं. मगर बीते कुछ सालों में कश्मीर में मानव और जानवर के बीच संघर्ष बढ़ा है. कोंदबल में अपनी इंटर्नशिप करने वाले अख्तर हुसैन कहते हैं,

“यहाँ बढ़ती आबादी के चलते चूने का निष्काशन (extraction) भी बढ़ा है. साथ ही जंगलों की कटाई बढ़ने के कारण जानवर अब आबादी की ओर आ रहे हैं जिससे यह संघर्ष भी बढ़ रहा है.”

वह कहते हैं कि हमें जंगलों को कटने से रोकना होगा और मानव और जानवर के बीच सीमा का चिन्हांकन करना होगा ताकि जानवर मानव बस्ती में न आ सकें. 

विश्विद्यालय के अन्य इन्टर्न देश के ऐसे ही अलग-अलग हिस्सों के जंगलों की कहानियाँ बता रहे हैं. इनका मानना है कि जंगलों को तभी बचाया जा सकता है जब समाज को इनकी उपयोगिता के बारे में समझाया जाए. इस आयोजन के अंतर्गत ही भोपाल की नरोना अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन एंड मैनेजमेंट में बीते शनिवार को चिपको आन्दोलन के नेता और पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट ने अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया. उन्होंने बताया कि कैसे हिमालय में बढ़ती जंगलों की कटाई ने नदियों को प्रभावित किया है. यह प्रभाव साल 2013 की केदारनाथ आपदा से लेकर हाल ही में हिमांचल में आई बाढ़ तक के रूप में हमारे सामने दिख रहा है.

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