नीलम ग्रेंडी | बागेश्वर, उत्तराखंड | सुंदरता के पैमाने से जुड़ी गलत धारणाएं आज भी हमारे समाज में जिंदा है. जहां सुंदरता को रंग के साथ जोड़ दिया जाता है फिर वह रंगभेद बन जाता है. लेकिन हमारे देश में रंगभेद को लिंग भेद के साथ जोड़ कर और भी खतरनाक बना दिया जाता है. विदेशो में काला रंग स्त्री व पुरुष दोनों को एक समान परिभाषित करता है. लेकिन भारत में इसे सिर्फ स्त्री से जोड़ कर देखा जाता है. विज्ञान और तकनीक के इस युग में भी यह मनोस्थिति समाज में गहराई से अपनी जड़ें जमाये हुए है. समाज में गोरा रंग ही सुंदरता का वास्तविक पैमाना माना जाता है जबकि वास्तविकता यह नहीं है. रंग का सुंदरता का कोई मतलब नहीं है. (Apartheid mentality against Women) लेकिन आज किसी महिला या लड़की के गुणों को ताक पर रख कर उसके रंग को महत्ता दी जाती है. हमारे समाज में की यह सबसे बड़ी और कड़वी सच्चाई है कि भले ही लड़के का रंग कम हो लेकिन हमें बहू गोरी ही चाहिए. यह हमारे समाज की कैसी सोच बन गई है? जहां लड़की का यदि रंग कम हो तो शादी के समय उसकी शिक्षा और व्यवहार कोई अर्थ नहीं रखता है.
हालांकि यदि हम इतिहास में देखें है तो कालिदास की शकुंतला सांवली थी, वाल्मीकि के रामायण की नायिका श्याम वर्ण की थी. कुछ ऐसे यादगार गीत भी हैं जो सांवले रंग का बखूबी बखान करते हैं. अतः यह माना जा सकता है इतिहास में, हमारी सोच में सुंदरता का पैमाना गोरा रंग नहीं था. (Apartheid mentality against Women) तो प्रश्न यह है कि आज समाज को खोखला करने वाले रंगभेद का विचार कहां से आया? गोरे रंग को लेकर एक खूबसूरत कहानी बना ली जाती है जहां काले रंग को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है. इस सोच का कारण खुद हमारा समाज है. खुद हम और हमारा परिवार है. जहां बच्चों की प्रतिभा का आकलन रंग के अनुसार किया जाता है. यह हमारे समाज की विडंबना है. जहां बालमन घर से लेकर स्कूल तक रंगभेद को लेकर भेदभाव सहते हैं और फिर वह अपने जीवन में इस सोच को उतार कर बड़े होते हैं. पीढ़ी दर पीढ़ी यही सोच समाज को खोखली करती जा रही है. अमीर और गरीब की तरह रंगभेद भी समाज में खाई को चौड़ा करने का काम कर रहा है.
रंगभेद की यह प्रवृत्ति देश के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलती है. पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक का चौरसो गांव रंगभेद का एक बुरा उदाहरण बनता जा रहा है. जहां बच्चों और विशेषकर लड़कियों को उसके नाम से नहीं, बल्कि रंग के आधार पर कल्लो, कालू, कावली, कव्वा जैसे शब्दों से पुकारा जाता है. बचपन में तो बच्चे इसे समझ नहीं पाते हैं, लेकिन बड़े होकर जब वह अपने नाम का अर्थ समझते हैं तो हीन भावना का शिकार हो जाते हैं. जो उनके मानसिक विकास को भी प्रभावित करता है. कहीं न कहीं आज इस रंगभेद के जिम्मेदार हम खुद हैं. इस संबंध में एक ग्रामीण शबनम तुल्ला कहती हैं कि उन्हें बचपन से (Apartheid mentality against Women) रंगभेद को लेकर हीन भावना का शिकार होना पड़ा है. उसके परिवार, पड़ोस और साथियों ने उसकी रंगत को लेकर हमेशा नकारात्मक व्यवहार किया, जिसका प्रभाव उसकी शिक्षा और मानसिक विकास पर पड़ा. उसने बताया कि इसी बात को लेकर उसके अंदर हमेशा हीन भावना घर कर गई. उसे ऐसा महसूस होने लगा कि सांवले रंग के कारण वह समाज के लिए महत्वहीन है. वहीं गांव की एक अन्य किशोरी अंजू का कहना है कि मेरे सांवले रंग के कारण न केवल गांव बल्कि परिवार में भी ताना दिया जाता है और यह कहा जाता है कि इससे कौन शादी करेगा? अपने सांवले रंग को लेकर मुझे बहुत मानसिक कष्ट होता है. जबकि मेरा मानना है कि खूबसूरती मनुष्य के व्यवहार में होती है.
इसी समस्या पर एक मां मंजू देवी का कहना है कि मेरी बेटी का रंग काफी सांवला है. हालांकि वह न केवल पढ़ने में होशियार है बल्कि स्वभाव की भी अच्छी है. इसके बावजूद हमें उसकी शादी की केवल उसके रंग के कारण चिंता हो रही है. उसका रिश्ता करने में हमें बहुत दिक्कत आएगी, अगर उसका रिश्ता हो भी जाता है तो हमें बहुत दहेज देना पड़ेगा. हालांकि किसी का रंग प्रकृति की देन है, इसके बावजूद समाज की संकीर्ण सोच इसे बढ़ावा देता है. इस संबंध में स्कूल की अध्यापिका रीता जोशी का कहना है कि सांवले रंग को लेकर शर्म का बीज बचपन में ही बच्चों के दिमाग में बो दिया जाता है. जब बच्चे स्कूल और घर में रंगभेद देखते, सुनते और सहते हैं तो वही चीज वह अपने जीवन में भी लागू करते हैं. (Apartheid mentality against Women) बड़े होते होते यह उनकी आदत में बदल जाती है. फिर वह समाज को भी इसी रूप में देखते हैं. इसलिए जरूरी है कि बचपन में ही उन्हें समझाना चाहिए कि उनका व्यक्तित्व उनकी त्वचा के रंग से नहीं आंका जाएगा बल्कि उनके स्वभाव पर से देखा जाएगा.
दरअसल समाज में सांवले रंग को स्त्रियों के संदर्भ में देखा जाता है. (Apartheid mentality against Women) भारतीय समाज में यह मनोवृति गहराई से जमी हुई है. जहां एक महिला की शिक्षा और हुनर उसके रंग पर भारी पर जाता है. क्रीम बनाने और बेचने वाली कंपनियों ने भी अपने प्रोडक्ट को बेचने के लिए इस मनोवृति का जमकर फायदा उठाया है. विज्ञापन में भी हमें सांवले रंग का जिक्र अक्सर देखने को मिलता है. जिसमें एक मॉडल सांवले रंग की लड़की का किरदार अदा करती है और अपने रंग को देख कर मायूस होती है. लेकिन ब्यूटी प्रोडक्ट लगाने पर वह अपने आप को गोरा देख कर खुश हो जाती है. उसे विश्व सुंदरी और ब्रह्मांड सुंदरी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. यह प्रचारित करने का प्रयास किया जाता है कि गोरे रंग से ही इस प्रतियोगिता में जीत मिल सकती है. जबकि हकीकत यह है कि इन प्रतियोगिताओं में लड़कियां त्वचा के रंग के कारण नहीं बल्कि जजों द्वारा पूछे गए सवाल का सबसे अच्छा जवाब देकर विजेता बनती हैं. ऐसे में इस प्रकार के विज्ञापन केवल रंगभेद को फैला कर समाज की मानसिकता को जहां प्रदूषित कर रहे हैं वहीं महिलाओं के खिलाफ रंगभेद जैसी विकृत मानसिकता को भी बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं. जिस पर रोक लगाने की ज़रूरत है. (चरखा फीचर)
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