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उत्तराखंड के गांवों में ज़िंदगियां तबाह कर रही है शराब की लत

उत्तराखंड के गांवों में शराब की लत लोगों की ज़िंदगियां तबाह कर रही हैं। हाली ही में आए फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार उत्तराखंड में 32.1 प्रतिशत पुरुष शराब का सेवन करते हैं।

By Pallav Jain
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उत्तराखंड के गांवों में शराब की लत लोगों की ज़िंदगियां तबाह कर रही हैं। हाली ही में आए फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार उत्तराखंड में 32.1 प्रतिशत पुरुष शराब का सेवन करते हैं। यह उत्तर भारत के राज्यों में सबसे ज्यादा दर है। दूसरे नंबर पर भी पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश है, जहां 31.9 प्रतिशत पुरुष शराब का सेवन करते हैं। 27.9 प्रतिशत के साथ दिल्ली तीसरे नंबर है।

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उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के चौरसु गांव की बबीता देवी जो पंचायत सदस्य भी हैं, बताती हैं कि 'यहां सरकारी ठेके से लोग शराब खरीदते हैं और घर-घर शराब भी बेची जा रही है। लोग दिन भर मज़दूरी करते हैं और रात में दारु पीकर अपने बच्चों और औरतों को पीटते हैं।'

अक्सर लोग ऐसा ही सोचते हैं कि पहाड़ों में लोगों का शराब पीना आम है, क्योंकि उनका जीवन कठिन होता है, लेकिनयहां आप गलत हैं क्योंकि कश्मीर भी पहाड़ है और उत्तर भारत में सबसे कम जम्मू एवं कश्मीर में 10.5 प्रतिशत लोग ही शराब का सेवन करते हैं।

शराब की लत की वजह से महिलाएं लगातार हिंसा का शिकार हो रही हैं, इसकी वजह से बच्चों की पढ़ाई छूट रही है।

चौरसू गांव की संगीता (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि "जब से मेरे पति ने शराब पीना शुरु किया तबसे मैं बहुत परेशान हूं, वो सारा पैसा शराब पर उड़ा देते हैं, गृहस्थी चलाना मुश्किल हो गया है। वो मेरे साथ मारपीट भी करते हैं, एक बार मेरे पति ने गुस्से में कपड़े बिस्तर सब कुछ नाले में फेंक दिए थे। मैं बहुत परेशान हूं। घर में पैसों की तंगी की वजह से मेरे बच्चों की पढ़ाई भी छूट गई। उनके पास फीस भरने तक के पैसे भी नहीं थे।"

पहाड़ों में कब पहुंचना शुरु हुई शराब?

आपको जानकर आश्चर्य होगा की अंग्रेज़ों के कदम पड़ने से पहले पहाड़ ड्राय एरिया हुआ करते थे। वर्ष 1800 तक कॉलोनियल ऑफिशियल यह जानकर काफी सरप्राईज़ड थे की पहाड़ों में रहने वाली कम्यूनिटीज़ पूरी तरह अल्कोहल फ्री थे। लेकिन जल्द ही हिल स्टेशन डेवलप होना शुरु हुए और शराब पहाड़ो में पहुंचने लगी। सेकंड वर्लड वॉर के समय फ्री स्टॉल्स लगाकर शराब का स्वाद पहाड़ी लोगों को चखाया गया और देखते ही देखते अंग्रेज़ों ने यहां भी शराब का मार्केट खड़ा कर दिया।

यहां कंट्री लिकर के डिस्टिलेशन का काम शुरु हुआ और समय के साथ यह उत्तराखंड की मेजर कॉटेज इंडस्ट्री बन गई।

गली मोहल्लों में बिक रही शराब

संगीता बताती हैं कि "यहां गरुढ़ में सरकारी ठेके पर ही शराब मिलती है, यहां गांव में भी लोग शराब बेचने आते हैं। मैं उनसे विनती करती हूं की मेरे पति को शराब न दें, मेरा घर बर्बाद हो रहा है, बच्चों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। "

समय समय पर पहाड़ी इलाकों में शराबबंदी के लिए आंदोलन हुए, नशे नहीं रोज़गार दो के नारे गूंजे और पहाड़ों में ही गुम हो गए। साल 1970 में टेहरी और पौड़ी को ड्राय घोषित किया गया जिसे अल्हाबाद हाई कोर्ट ने वाईन मर्चंट की पिटिशन के बाद ओवरटर्न कर दिया।

आंदोलनों के पीछे हमेशा एक तर्क दिया गया है कि पहाड़ी इलाकों में लोगों के पास अपनी मूलभूत ज़रुरतों को ही पूरा करने के साधन नहीं है, ऐसे में शराब की बढ़ती लत उनकी आर्थिक स्थिति को और ज्यादा पंचर कर रही है।

संगीता बताती हैं कि पति की शराब की लत ने उनके परिवार को गरीबी के रास्ते पर ढकेल दिया है, अब वो भी एक स्कूल में काम करती हैं। जहां से कुछ पैसा मिलता है, जिससे घर चलता है। जब उनके पति शराब नहीं पीते थे, तब सबकुछ ठीक था।

शराब के साथ सामाजिक बुराई का कलंक जुड़ा होने की वजह से लोग इसके बारे में बात करने से झिझकते हैं। जो लोग समाधान चाहते हैं उन तक कोई मदद पहुंचती नहीं है। नशा मुक्ति केंद्र या तो दूर शहरों में है या पहुंच के बाहर हैं।

नशे से छुटकारे का कोई साधन नहीं

बबीता देवी जो पंजायत सदस्य हैं बतती हैं कि जब दारु पीकर लोग महिलाओं को परेशान करते हैं तो वो सरपंच के साथ उनके घर पर जाते हैं उन्हें समझाते हैं, लेकिन अगले दिन फिर से वो शराब पीने लगते हैं। पुलिस भी आकर समझाती है, लेकिन यह लत ऐसी है कि लोग छोड़ना ही नहीं चाहते।

एक बाज़ार खड़ा करने के लिए पहाड़ी लोगों को शराब के अंधे कुए में धकेला जा रहा है। महिलाएं चाहती हैं कि उन्हें जल्द इस अभिषाप से मुक्ती मिले लेकिन उनकी मदद को कोई तैयार नहीं है

गांव की महिलाएं कहती हैं कि उनके गांव को नशे के चंगुल से बचाना बेहद ज़रुरी है, अगर अभी कुछ नहीं किया तो आने वाली पीढ़ी भी बर्बाद हो जाएगी।

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