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'स्पोर्ट्स लड़कों के लिए छोड़ दो, तुम डांस या सिंगिंग करो'

आज भी कई लड़कियों को खेलने के लिए मैदान नहीं मिलता। सोचिए भारतीय महिला खिलाड़ियों को खेलने के लिए अगर मैदान ही नहीं मिला होता तो क्या होता?

By Ground Report Desk
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discrimination in sports india

सोचिए आईपीएल की सबसे एक्सपेंसिव प्लेयर स्मृति मंधाना, भारत को अंडर 19 वुमन वर्लड कप जिताने वाली शेफाली वर्मा और उनकी टीम, सानिया मिर्ज़ा, सायना नेहवाल, पीवी सिंधु और मैरी कॉम जैसी तमाम भारतीय महिला खिलाड़ियों को खेलने के लिए अगर मैदान ही नहीं मिला होता तो क्या होता?

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भारत में आज भी कई ऐसी लड़कियां हैं जो खेलना तो चाहती हैं, लेकिन समाज की संकुचित सोच उन्हें मैदान से बाहर खदेड़ने में लगी हुई है। उत्तराखंड के बागेश्वर में खेल के मैदान में लड़कियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

बागेश्वर जिले के गरुढ़ ब्लॉक के अंतर्गत आने वाले पिंगलो गांव की लड़कियां खेलना चाहती हैं, लेकिन उनके तमाम अड़चने उनके सामने पहाड़ की तरह खड़ी हैं। पूजा पिसवाड कहती हैं "मैने कक्षा आठवी के बाद से खेल के मैदान से दूरी बनाना शुरु कर दिया है, स्कूल में लड़कों को जो सुविधाएं दी जाती हैं वो हमें नहीं मिलती। स्पोर्ट्स की किट आती है वो लड़कों को दे दी जाती है, खेलने का समय भी लड़कियों को कम दिया जाता है। अगर बाहर कोई स्पोर्ट्स प्रतिस्पर्धा होती है तो लड़कियों से कहा जाता है कि चढ़ाई चढ़नी होगी, लड़के हीं ठीक रहते हैं।"

"तुम लड़की हो खेलना तुम्हारा काम नहीं, डांस करो, गाना गाओ, सिलाई कढ़ाई करो, कल्चरल एक्टीविटीज़ में पार्ट लो, स्पोर्ट्स लड़कों के लिए छोड़ दो…."

पूजा कहती हैं कि "हमारे शिक्षक हमसे यही कहते हैं, उन्हें लगता है कि खेलना लड़कों के लिए है और कल्चरल एक्टीविटीज़ लड़कियों के लिए। जब शिक्षकों की ही ऐसी सोच होगी तो हम आगे कैसे बढ़ेंगे।"

पिंगलो गांव की चांदनी कहती हैं कि उन्होंने अब खेलना बंद कर दिया है, स्कूल में खेल के संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और जो थोड़े बहुत हैं उनसे लड़के ही खेलते हैं। स्कूल के टीचर्स भी सपोर्ट नहीं करते।

यशोदा कहती हैं कि उन्हें दौड़ने का बहुत शौक था, शादी से पहले वो सुबह 4 बजे उठकर दौड़ने जाया करती थीं। उनके शिक्षक भी उनके साथ जाते थे। लेकिन घर की आर्थिक स्थिती ठीक नहीं थी, इसलिए शादी करनी पड़ी, खेलना तो छूटा ही, पढ़ाई भी छूट गई। अब आगे पढ़ना चाहती हूं लेकिन सास कहती है, क्या करोगी पढ़कर, घर ही तो संभालना है।

लड़कियों के लिए खेल में भविष्य बनाना आसान नहीं है, जो लड़कियां समाज और परिवार से लड़कर खेल के मैदानों में डटी हैं, वो हर दिन कई तरह की उलाहना का सामना करती हैं।

पूजा कहती हैं कि जब वो खेल के मैदान में शॉर्ट्स पहन कर जाती हैं तो लड़के तो लड़के टीचर्स भी कमेंट करते हैं। कहते हैं कि 'इतने छोटे कपड़े मत पहना करो', "खेल के मैदान में कंफर्टेबल कपड़े नहीं पहनेंगे तो खेलेंगे कैसे, लड़कों से कोई कुछ क्यों नहीं कहता? लड़कों से जब हम स्पोर्ट्स इक्विपमेंट मांगने जाते हैं तो वो हमारे चरित्र पर सवाल उठाने से भी परहेज़ नहीं करते, वो कहते हैं हम जानते हैं तू कैसी लड़की है, लड़कों वाले काम करती है।"

चांदनी की मां कहती हैं कि वो अपने बेटे और बेटी में भेदभाव नहीं करती, "मैं तो चांदनी से कहती हूं कि तुम भी दौड़ने जाओ कुछ खेलो कूदो, हमारी तरह मत बनो, जो हम नहीं कर पाए वो तुम करो। हो सकता है आगे चलकर पुलिस की भर्ती निकले और तुम्हारा सिलेक्शन हो जाए। अगर मुझे मौका मिलता तो मैं भी खूब दौड़ती।"

समाज में जितने लड़कियों का हौसला बढ़ाने वाले लोग हैं, उससे कहीं ज्यादा उन्हें पीछे धकेलने वाले हैं। ज़रुरत है कि पुरुषप्रधान समाज ने जिस जिस चीज़ पर से लड़कियों का नाम मिटाया है, हर उस काम को करने के लिए लड़कियां आगे आएं, खेल के मैदान से लेकर जंग के मैदान तक लड़कियों को हिम्मत से डटे रहना होगा, यही इस खेल का एकमात्र नियम है और जीत का फॉर्मुला भी।

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