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पिघलते ग्लेशियरों की निगरानी ज़रूरी, वरना आज सिक्किम, कल....

सिक्किम में दक्षिण लोनाक झील (South Lohnak Lake) पर बहुत भारी बारिश हुई। इसके चलते झील के पानी ने अपना किनारा छोड़ दिया।

By Ground report
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SOuth Lohnak Lake

Climate Kahani | बीते हफ्ते, सिक्किम में दक्षिण लोनाक झील (South Lohnak Lake) पर बहुत भारी बारिश हुई। इसके चलते झील के पानी ने अपना किनारा छोड़ दिया। सब कुछ इतना अचानक हुआ कि झील के पानी ने चुंगथांग बांध को तोड़ दिया। और इसके बाद तबाही का ऐसा दौर आया कि फिलहाल चालीस से ज़्यादा लोगों की मौत की खबर है, तमाम लोग गायब हैं, अनगिनत लोग चोटिल हैं, और  सिक्किम के कई हिस्सों में बाढ़ आ चुकी गई।

मौसम विज्ञानियों के अनुसार, क्षेत्र में ऐसी भीषण बारिश के लिए मौसम की स्थिति पूरी तरह से अनुकूल थी। इसकी वजह थी आस-पास कम दबाव के क्षेत्र का होना। लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन ने भी निश्चित तौर से इस बरसात को इतना भीषण बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है।

दरअसल साल 2021 में एक अध्ययन से पता चला था कि दक्षिण लोनाक झील का आकार गंभीर रूप से बढ़ चुका है। इस अध्ययन में यह भी कहा गया था कि अब झील भारी बारिश जैसे चरम मौसम के प्रति संवेदनशील हो गयी है। अब क्योंकि हम यह अनुमान नहीं लगा सकते कि ग्लेशियर में बाढ़ कब आएगी, इसलिए ऐसी किसी बाढ़ के लिए तैयार रहना ही हमारे पास एकमात्र विकल्प है। जरूरत है उचित आपदा जोखिम न्यूनीकरण योजना और क्षति नियंत्रण की।

स्थिति कि गंभीरता समझाते हुए ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ. फारूक आज़म कहते हैं,

"साल 2021 में भविष्यवाणी की गई थी कि यह झील ओवरफ्लो हो जाएगी और बांध को प्रभावित करेगी। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघलने के कारण ग्लेशियर झीलों की संख्या में वृद्धि हुई है। जब ग्लेशियर का आकार बढ़ता है, तब वे नदी के तल में गहराई तक खोदते हैं। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन ने वैसे भी अप्रत्याशित स्थितियां पैदा कर दी हैं। ठीक वैसी जैसी सिक्किम में पिछले हफ्ते की भीषण बारिश की शक्ल में दिखीं। इस बारिश से झील ओवरफ़्लो कर गयी। जब ग्लेशियर नष्ट हो जाते हैं, तो वे आधारशिला पर अधिक दबाव डालते हैं।इससे अधिक गाद पैदा होती है। बाढ़ और भूस्खलन फिर अधिक गाद और मलबा नीचे की ओर ले जाते हैं, जिससे विनाश बढ़ जाता है।"

वैसे ग्लेशियर झीलें भले ही ज्यादातर सुदूर पहाड़ी घाटियों में होती हैं, लेकिन उनका फटना नीचे की ओर कई किलोमीटर तक नुकसान पहुंचा सकता है। जीवन, संपत्ति और बुनियादी ढांचे पर असर पड़ सकता है। जैसा की फिलहाल सिक्किम में देखने को मिल रहा है।

ग्लेशियोलॉजिस्ट और वैज्ञानिकों ने ग्लेशियर झीलों के आकार में तेजी से वृद्धि को लेकर चेतावनी दी है। और जैसे जैसे इन पर्वतीय क्षेत्रों में बुनियादी ढांचों और बस्तियों का विकास हो रहा है, ये ग्लेशियर झीलें एक प्रमुख चिंता का विषय बन रही हैं।

sikkim floods explained

दक्षिण लोनाक ग्लेशियर पर पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

दक्षिण लोनाक ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहा है। इसकी झील सिक्किम की सबसे बड़ी और सबसे तेजी से बढ़ने वाली झील बन गई है। साल 1962 से 2008 तक ग्लेशियर लगभग 2 किमी पीछे चला गया। साल 2008 से 2019 तक यह 400 मीटर और पीछे चला गया। झील में बाढ़ के खतरे को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। घाटी के निचले हिस्से में कई बस्तियाँ और बुनियादी ढांचे हैं।

भारी वर्षा से ग्लेशियर में बाढ़ भी आ सकती है। यह प्रकृतिक रूप से बने मोरैन बांध को नष्ट कर देता है और झील को उसकी सीमा से ज़्यादा भर देता है।

अध्ययनों से पता चलता है कि भविष्य में ऐसी ग्लेशियर बाढ़ का खतरा बढ़ने की संभावना है। अधिक नई झीलें और उनकी बढ़ी हुई ट्रिगर क्षमता इसके कारण हैं। एक्सपोज़र पैटर्न बदलने से ग्लेशियर बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है। दक्षिण ल्होनक झील को बांधने वाला मोरैन बांध कुछ स्थानों पर पतला है। इसकी असमान सतह नीचे दबी हुई बर्फ का संकेत देती है। इसका मतलब यह है कि बांध के भविष्य में खराब होने का खतरा है। लगातार ग्लेशियर पीछे हटने से झील खड़ी ढलानों के करीब आ जाएगी।

डॉ. फारूक आज़म आगे बताते हैं,

"पूर्वी हिमालय में मानसून अधिक अनियमित और अप्रत्याशित होता है। बर्फबारी से ग्लेशियरों को पोषण मिलता है लेकिन अब अक्सर बारिश होती है। भारी बारिश के दिन और शुष्क अवधि बढ़ रही है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर अधिक पिघलते हैं।"

ध्यान रहे, ग्लेशियर के पिघलने से गाद में वृद्धि भी होती है। पीछे हटने वाले पिघलते ग्लेशियर बहुत सारी ढीली तलछट - मिट्टी और चट्टानें छोड़ते हैं। यहां तक कि थोड़ी सी बारिश भी इन पत्थरों और मलबे को नीचे की ओर ले जा सकती है। इसलिए ज़्यादा तलछट स्तर के कारण ऊंचे हिमालयी क्षेत्र बांधों और सुरंगों के लिए अनुपयुक्त है।

भूकंप मोरैन बांध की अखंडता पर भी वार कर सकते हैं। यहाँ बताना ज़रूरी है कि दक्षिण ल्होनक झील भूकंपीय दृष्टि से अत्यंत सक्रिय क्षेत्र में है। पिछले भूकंप इसके आस-पास ही आए थे।

आईपीसीसी के लेखकों में से एक, अंजल प्रकाश कहते हैं,

"भविष्य में ऐसी घटनाओं की आवृत्ति और गंभीरता तेजी से बढ़ेगी। हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र दुनिया में सबसे नाजुक है। इन संसाधनों के प्रबंधन में कोई भी व्यवधान समस्याग्रस्त होगा। बढ़ता तापमान अधिक गंभीर घटनाओं का कारण बनता है, लेकिन बांधों के माध्यम से नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को भी परेशान करता है। ग्लेशियर में बाढ़ का प्रकोप क्षेत्रीय वार्मिंग के कारण होता है। एक बार बनने के बाद, हम नहीं जानते कि किस कारण से विस्फोट होगा। सिक्किम इसका ताज़ा उदाहरण है।"

भविष्य अंधकार में दिख रहा है

इस सदी में अधिकांश क्षेत्रों में बर्फ, ग्लेशियर और पर्माफ्रॉस्ट में गिरावट जारी रहेगी। आईपीसीसी के अनुसार आने वाले दशकों में ग्लेशियर झीलों की संख्या और क्षेत्रफल में वृद्धि होगी। नई झीलें खड़ी, अस्थिर दीवारों के करीब विकसित होंगी जहां भूस्खलन से विस्फोट हो सकते हैं।
बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने से नदी के बहाव में और बदलाव आएगा। इससे कुछ क्षेत्रों में कृषि, जलविद्युत और पानी की गुणवत्ता प्रभावित होगी।

इस मामले में अब अधिक सटीक वैज्ञानिक निगरानी की आवश्यकता है। अपनी प्रतिक्रिया देते हुए जलवायु वैज्ञानिक डॉ. रॉक्सी मैथ्यू कोल कहते हैं,

"हम जानते हैं कि अत्यधिक बारिश और बाढ़ की संभावना बढ़ गई है। महासागर के गर्म होने से क्षेत्रीय नमी का स्तर बढ़ जाता है। कम दबाव वाले क्षेत्र में अधिक नमी बढ़ गई, जिससे भारी बारिश हुई। लेकिन हमारे पास यह बताने के लिए निगरानी की कमी है कि वास्तव में क्या हुआ, किस हद तक जलवायु परिवर्तन हुआ कारक। हम जानते हैं कि हिमालय में बादल फटने का खतरा है, लेकिन हॉटस्पॉट का पता नहीं लगाया जा सकता। इसलिए उचित निगरानी की जरूरत है।”

अंत में डॉ. अंजल प्रकाश सरल शब्दों में बताते हैं,

"जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों की सूक्ष्म समझ के लिए अधिक शोध महत्वपूर्ण है। 54,000 से अधिक हिमालय के ग्लेशियरों में से बहुत कम की निगरानी की जाती है। इसका मतलब है कि निगरानी की कमी और जानकारी के अभाव में आपदाएं बढ़ती रहेंगी। वैज्ञानिक निगरानी नीतिगत निर्णयों का आधार बनना चाहिए और फिलहाल इसकी अभी कमी है।"

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