मध्यप्रदेश के बैतूल जिले का बांचा गांव वर्ष 2021 में सोलर विलेज के रुप में चर्चा का विषय बना। यहां आईआईटी मुंबई और ओएनजीसी के मार्गदर्शन में भारत भारती शिक्षा समिति द्वारा 74 घरों में सौर ऊर्जा से चलने वाले सोलर कुकटॉप इंस्टॉल करवाए गए थे। इसकी मदद से गांव वालों को न सिर्फ चूल्हे के धुएं से आज़ादी मिली थी बल्कि महंगे गैस सिलिंडर के बोझ से भी मुक्ति मिल गई थी। लेकिन यह गांव आज वर्ष 2023 में दोबारा उसी धुंए और महंगे गैस सिलिंडर की आग में तप रहा है, क्योंकि जो सोलर कुकटॉप यहां लगाए गए थे अब उन्होंने काम करना बंद कर दिया है।
बांचा गांव के अनिल उईके ने ग्राउंड रिपोर्ट को बताया कि
"पिछले 2 सालों से ये सोलर कुकटॉप बंद पड़ गए हैं। इनमें जो तकनीकी दिक्कतें हैं उन्हें यहां के लोकल टेक्नीशियन ठीक नहीं कर पा रहे हैं। इन्हें अब सुधरने के लिए औरंगाबाद भेजा जाएगा।"
कैस बना बांचा सोलर विलेज?
आपको बता दें कि वर्ष 2016-17 में ओएनजीसी ने सोलर चूल्हा डिज़ाईन प्रतियोगिता का आयोजन किया था जिसमें आईआईटी मुंबई के छात्रों ने ऐसा सोलर कुकटॉप डेवलप किया था जो सौर ऊर्जा से चल सके। यह कुकटॉप एक दिन में तीन युनिट बिजली की खपत से चलता था, जिससे एक परिवार का दो समय का खाना आसानी से बनाया जा सकता था। प्रत्येक सोलर कुकटॉप पर 70 हज़ार का खर्च था, जिसे ओएनजीसी ने वहन कर बांचा गांव में इंस्टॉल करवाया। आईआईटी मुंबई ने इन कुकटॉप के रिपेयरिंग के लिए गांव के दो लोगों को ट्रेनिंग भी दी थी, लेकिन अभी जो खराबी इन कुकटॉप में आई है उसे सुधारना इनके बस की बात नहीं है।
सोलर कुकटॉप से क्या था फायदा?
बांचा गांव की प्रेमती बताती हैं कि
"रोटी बनाने के अलावा हम सारा काम खाना बनाने की मशीन से करते थे, हमारी लकड़ी की खपत भी कम हो गई थी। लेकिन अब जब हम मशीन चालू करते हैं तो वो बुझ जाती है। अगर हमारी यह मशीन ठीक हो जाएगी तो दोबारा हम उसी पर खाना बनाने लगेंगे।"
अनिल उईके कहते हैं "सोलर विलेज बनने के बाद बांचा गांव को सब लोग पहचानने लगे थे, यहां ज्यादातर आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं, जिन्हें जंगल से लकड़ी काटकर लाना पड़ता है। दो सालों तक जब सोलर कुकटॉप ने अच्छे से काम किया तो महिलाओं को काफी आसानी हो गई थी। लेकिन जबसे यह खराब हुई है लोगों को वापस लकड़ी जलाकर खाना बनाना पड़ रहा है। हमारी सरकार से गुज़ारिश है कि वो इसे जल्द से जल्द ठीक करवा दें।"
रामदास उईके बताते हैं कि "गैस का सिलिंडर बहुत महंगा है हमारी महीने में इतनी कमाई नहीं होती कि गैस सिलिंडर भरवा सकें। सोलर कुकटॉप से हमारा काम आसान हुआ था, लेकिन अब यह कुकटॉप काम नहीं करता।"
क्यों खराब हो गए बांचा गांव के सोलर कुकटॉप?
सोलर पैनल से अब बे-शक बांचा में खाना न बनता हो लेकिन लोग अपने घर की एक दो लाईट इससे अभी भी जला पा रहे हैं। गांव के टेक्निशियन ने ग्राउंड रिपोर्ट को बताया कि
"यहां धूल की समस्या है जिससे कुकटॉप खराब हो गया है। इसका सही रखरखाव कैसे करना है? इसकी जानकारी भी लोगों के पास नहीं है। इसी वजह से गांव के ज्यादातर कुकटॉप काम नहीं कर रहे। आईआईटी बॉम्बे ने इन कुकटॉप को विशेष तौर पर डेवलप किया था, जिससे कि यह सौर ऊर्जा से चल सके। इसके जो पार्ट्स हैं वो हमारे पास नहीं है, इन्हें सुधरने के लिए औरंगाबाद भेजा जाएगा लेकिन इसमें काफी समय लगेगा।"
बांचा गांव के सोलर विलेज बनने में यहां के लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, उन्होंने न सिर्फ सोलर कुकटॉप चलाना सीखा बल्कि इसे भरपूर इस्तेमाल भी किया, लेकिन ऐसे सभी नवाचार में हम देखते हैं कि हेडलाईन बन जाने के बाद, वाहवाही बटोरने के बाद इन योजनाओं की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता और इतना कुछ करने का जो मूल मकसद रहता है वो कहें अंधेरे की दुनिया में खो जाता है। ज़रुरत है कि ऐसे मॉडल विकसित किये जाएं जिसमें लोकल स्तर पर रखरखाव की सुविधा मुहैया हो सके और इसे लागू करवाने वाली एजेंसियां इससे सीख लेकर अपनी गलतियों में सुधार करें।
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