मध्यप्रदेश के सीहोर जिले में बड़ी संख्या में लोग अपना इलाज करवाने आते हैं, यहां 60 प्राईवेट हॉस्पिटल/ हेल्थ केयर फेसिलिटी मौजूद हैं और 69 बिना बेड वाले हेल्थ क्लीनिक है। सीहोर शहर में इंवायरमेंट प्रोटेक्शन कॉर्पोरेशन द्वारा संचालित बायोमैडिल वेस्ट ट्रीटमेंट फेसिलिटी में इन स्वास्थ्य केंद्रों से निकलने वाले कचरे का निपटान किया जाता है। यहां मौजूद इंसीनरेटर (एक प्रकार की भट्ठी होती है. इसमें खतरनाक सामग्रियों को जलाने की प्रक्रिया होती है), ऑटोक्लेव (आटोक्लेव एक ऐसी मशीन है जो उच्च तापमान वाली भाप और दबाव का उपयोग करके वस्तुओं को कीटाणुरहित करती है ) और श्रेडर(एक मशीन है जिसमें ब्लेड की श्रृंखला होती है. यह पत्तियों या बचे हुए अवशेषों को छोटे टुकड़ों में काटती है) में इस कचरे को हर दिन नष्ट किया जाता है।
मध्यप्रदेश पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के आंकड़े के मुताबिक सीहोर में हर दिन 80.983 केजी बायोमैडिकल कचरा पैदा होता है। सीहोर की मौजूदा बायोमैडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटी ईपीसी की क्षमता की बात करें, तो यहां हर घंटे 100 किलो कचरा इंसीनरेट, 40-80 किलोग्राम प्रति घंटा कचरा ऑटोक्लेव और 35 किलोग्राम प्रति घंटा श्रेड किया जा सकता है।
क्या होता है बायोमैडिकल वेस्ट?
बायोमैडिकल वेस्ट मतलब वो कचरा जो इंसान और पशुओं के ईलाज के बाद निकलता है, इसमें ऑर्गन, टिशू, ब्लड, ट्रीटमेंट के औज़ार, दवाईयां, सिरिंज, बॉटल्स, ग्लव्स, ब्लेड आदि शामिल होते हैं। इस कचरे को हमारे घर से निकलने वाले किसी आम कचरे की तरह निष्पादित नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें हानिकारक बैक्टिरिया, वायरस और टॉक्सिक कैमिकल्स होते हैं। इसीलिए अस्पतालों में 4 अलग-अलग रंग (लाल, नीला, पीला और सफेद) के डस्टबिन होते हैं। भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2016 में कलर कोडेड तरीके से मैडिकल कचरे को अलग-अलग करने की प्रथा की शुरुवात की है। इसका उद्देश्य अलग-अलग प्रकृति के कचरे का बंटवारा कर उसका सही तरीके से निष्पादन करना है। यह वैसा ही है जैसे घरों में हमें गीला और सूखा कचरा अलग-अलग रखने की सलाह दी जाती है।
बायोमैडिकल वेस्ट को सैग्रीगेट यानी अलग-अलग रखने की ज़िम्मेदारी हॉस्पिटल प्रशासन की होती है।
अलग अलग रंग के डस्टबिन
पीला डस्टबिन
इसमें ह्यूमन और एनीमल एनाटॉमिकल वेस्ट-जैसे ह्यूमन टिशू, शरीर का कोई अंग जैसे गर्मभात के बाद निकला फीटस, अपैंडिक्स आदि। ऐसे ही एनीमल की बॉडी का कोई पार्ट या वेस्ट। बॉडी से निकले तरल पदार्थ जैसे खून से कंटामिनेट हुआ कचरा है तो उसे भी पीले डस्टबिन में डाला जाता है। जैसे ड्रेसिंग, प्लास्टर, कॉटन स्वाब, डिस्कार्डेड ब्लड। एक्सपायर हो चुकी दवाईयां और फार्मा वेस्ट, एंटीबायोटेक्स, साईटोटॉक्सिक ड्रग्स, इस तरह की दवाईयों से कंटामिनेटेड सिरिंज, वायल्स आदि। खून से कंटामिनेट हुए चादर पर्दे आदि को पीले डस्टबिन में रखा जाता है और बायोमैडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटी में इंसीनरेट या गहरे गड्ढे में गाड़ा जाता है।
लाल डस्टबिन
लाल रंग के डस्टबिन में ऐसा कचरा रखा जाता है जिसे रीसायकल किया जा सके, जैसे ट्यब, बॉटल्स, युरिन बैग, सिरिंज (बिना नीडल के), ग्लव्स आदि। इस कचरे को ऑटोक्लेव किया जाता है, इस तकनीक में कैमिकल के ज़रिए कचरे को डिस्इंफेक्ट कर रीसायक्लिंग के लिए भेजा जाता है।
सफेद डस्टबिन
इसमें नीडल्स, कटर, ब्लेड्स जैसे नुकीले मेटल के कचरे को रखा जाता है। इसे पहले ऑटोक्लेव किया जाता है फिर श्रेडिंग की जाती है। श्रेडिंग का मतलब छोटे छोटे तुकड़ो में तोड़ना होता है।
नीला डस्टबिन
यह गत्ते का बना होता है इसमें टूटा हुआ कांच, दवाई की शीशियां, धातु वाले इंप्लांट रखे जाते हैं। सोडियम हाईपोक्लोराईड से डिस्इंफेक्ट करके इसे रीसायक्लिंग के लिए भेजा जाता है।
बायोमैडिकल वेस्ट कलेक्शन
कचरे को अस्पताल प्रशासन को ही अलग-अलग रखना होता है, इसके बाद बायोमैडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट एजेंसी जैसे सीहोर में इंवायरमेंट प्रोटेक्शन कॉर्पोरेशन है वो बारकोड वाले थैले में इसे कलेक्ट करती है। बारकोड में वज़न और कचरे की जानकारी होती है जो सीधे पॉल्यूश कंट्रोल बोर्ड की वेबसाईट पर अपलोड होती है।
यहां से कचरा फिर बायोमैडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसिलिटी पहुंचता है और उसकी प्रकृति के आधार पर कचरे को इंसीनरेट, ऑटोक्लेव या श्रेड किया जाता है।
इंवायरमेंट प्रोटेक्शन कॉर्पोरेशन के इम्तियाज़ बेग बताते हैं कि
"कई बार पेशेंट के अटेंडेंट गलती से बायोमैडिकल वेस्ट के लिए निर्धारित डस्टबिन में खाने का सामान, पन्नियां आदि डाल देते हैं जिसकी वजह से कचरे को अलग करना मुसीबत बन जाता है। अगर लोगों को जागरुक किया जाए तो इस समस्या से बचा जा सकता है।"
तो इस तरह से अस्पतालों और मैडिकल क्लीनिक के कचरे का निष्पादन सीहोर शहर में किया जाता है। तकनीक और व्यवस्था होने के बावजूद लापरवाही और सही से सैग्रिगेशन न होने की वजह से बायोमैडिकल कचरा लैंडफिल साईट पहुंच जाता है, जिसे बाद में नगरपालिका अलग करती है। यह कचरा काफी खतरनाक होता है इसका सही तरीके से निपटान बहुत ज़रुरी होता है, इसके संपर्क में आने से हेप्पेटाईटिस, एचआईवी जैसी बीमारियों के होने का खतरा रहता है।
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