पिछले कुछ वर्षों में जबसे पर्यावरण के प्रति सजगता बढ़ी है, देखा जा रहा है कि लोगों में सस्टेनेबल घरों ( ऐसे घर जिनसे पर्यावरण को कम नुकसान होता हो) निर्माण के प्रति रुझान में बढ़ोतरी हो रही है। जहां एक तरफ भारत के ग्रमीण इलाके जहां मिट्टी के घर आम होते थे वहां लोग कंक्रीट के घर बना रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ शहरों में जो लोग जागरुक हैं वो अपने सेंकेंड होम के लिए मिट्टी के घरों का निर्माण करवा रहे हैं। ऐसे कई आर्किटेक्ट जो सस्टेनेबल हाउसिंग का काम कर रहे हैं वो ऐसे कुशल कारीगरों की तलाश में हैं जो मिट्टी के पारंपरिक घरों के निर्माण का काम जानते हों। क्योंकि भारत के गांवों में पहले मिट्टी के घर आम हुआ करते थे, यहां ऐसे कई स्थानीय कारीगर आज भी मौजूद हैं जो काम की तलाश में भटक रहे हैं। मिट्टी के घरों के निर्माण में अगर तेज़ी आती है तो इन कारीगरों को रोज़गार के नए अवसर मिल सकते हैं। ज़रुरत है एक ऐसे मंच की जहां ये कारीगर खुद को रजिस्टर कर सकें, और यहां से सस्टेनेबल हाउसिंग में काम कर रहे आर्किटेक्ट इन्हें रोज़गार दे सके। इस काम में महिलाओं को रोज़गार के अवसर मिलने की असीम संभावनाएं है।
पारंपरिक घर बनाने वाले बदरीनारायण की कहानी
हमने ऐसे ही कुछ कारीगरों से बात की जो पारंपरिक घरों का वर्षों से निर्माण करते रहे हैं, लेकिन समय के साथ बढ़ रहे कंक्रीट के घरों के निर्माण की वजह से बेरोज़गार हो चुके हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 35 किलोमीटर दूर सीहोर जिले के गांव सेकड़ाखेड़ी में ऐसे कई कारीगर आज भी रह हैं। बदरीनारायण जिनकी उम्र 45 वर्ष है बताते हैं कि
" मैंने 18 वर्ष की उम्र में घर निर्माण का काम सीखा था, उस वक्त हमारे गांव में कई कारीगर हुआ करते थे, कुछ लोग ईंट चुनाई का काम करते थे, कुछ गारे यानी मिट्टी का विशेष लेप बनाकर घरों का प्लास्तर करने में माहिर थे। मेरा काम मुख्यत:लकड़ी से घर का ढांचा तैयार करना होता था। लेकिन जैसे जैसे कंक्रीट के घरों के निर्माण का चलन बढ़ा सभी लोग यह काम छोड़कर नए रोज़गार की तलाश में निकल गए। मैं भी घरों के दरवाज़े और फर्नीचर बनाने का काम करने लगा हूं। लेकिन आज भी कभी किसी गांव में इस तरह का काम मिलता है तो वहां चला जाता हूं। इस काम के अवसर भी घटे हैं और आमदनी भी अच्छी नहीं होती"
अगली पीढ़ी ने रोज़गार के अभाव में बदला अपना काम
बदरीनारायण के बेटे ओमप्रकाश ने अपने पिता से ही घर निर्माण का काम सीखा था लेकिन काम न मिलने की वजह से उन्होंने फर्नीचर बनाने का काम में हाथ आज़माया और अब इतना कमा लेते हैं कि अपना घर चला सकें। ओमप्रकाश और बदरीरायण खुद मिट्टी से बने मकान में ही अपने परिवार के साथ रहते हैं। ओमप्रकाश कहते हैं कि
"मिट्टी से बने घर को लोग गरीब का घर समझते हैं, लेकिन हमारी पीढ़ियां इसी तरह के घर में रहती आई हैं, जिस तरह से गर्मी बढ़ रही है उस स्थिति में मुझे लगता है कि कंक्रीट के घरों में रहना मुश्किल है। हमारे घर में हमें कभी कूलर चलाने की ज़रुरत नहीं पड़ती।"
ओमप्रकाश को प्रधानमंत्री आवास के तहत अभी तक पक्का आवास नहीं मिला है। हमने उनसे पूछा की अगर उनको घर बनाने के लिए पैसे मिले तो क्या तब भी वो पक्का मकान नहीं बनाएंगें? इस सवाल पर ओमप्रकाश कहते हैं कि
"साब प्रधानमंत्री आवास योजना से मिले घर में पक्का घर बनाना अनिवार्य है, इसीलिए हमें पक्का मकान बनाना ही पड़ेगा। लेकिन अगर सरकार मिट्टी का घर बनाने की अनुमति दे तो हम और बेहतर तरीके से अपने घर का निर्माण कर पाएंगे और काफी पैसे भी बचा पाएंगे।"
बदरीनारायण के मुताबिक मिट्टी का घर बनाने में मुख्य काम लकड़ी से ढांचा तैयार करने का ही होता है, इसी पर फिर ईंटों की चुनाई और कबेलू की छत ढाली जाती है। लकड़ी की फ्रेम तैयार करने में 2 हफ्ते का समय लगता है, यह समय बढ़ सकता है अगर घर बड़ा हो तो। लकड़ी का चुनाव और उसकी कटिंग में ही मुख्य समय ज़ाया होता है उसके बाद फ्रेमिंग में एक हफ्ते का समय काफी होता है। फ्रेमिंग के समय हमें बहुत ध्यान से सारे मेशरमेंट लेने होते हैं क्योंकि घर का सारा भार इन लकड़ी के खंबों और म्यालों पर टिका होता है। ज़रा सी गड़बड़ी घर को कमज़ोर कर सकती है।
बदरीनारायण के मुताबिक उन्हें इस काम के लिए 600-700 रुपए प्रति दिन के हिसाब से मज़दूरी मिलती है। लेकिन ऐसे काम अब बहुत मुश्किल से ही मिलते हैं।
"मुझे पारंपरिक घर बनाना ज्यादा अच्छा लगता है, फर्नीचर बनाने में मेरा दिल नहीं लगता, लेकिन क्या करें घर चलाना है तो जो काम सामने आता है वो करना पड़ता है।"
बदरीनारायण जैसे और भी कई लोग सैकड़ाखेड़ी और इसके आसपास के गांव में पारंपरिक घरों के निर्माण का कार्य जानते हैं। घरों के लिए ईंट बनाने और इसके प्लास्तरिंग के काम में महिलाएं माहिर होती हैं। क्योंकि वे बरसों से अपने घर बनाने का काम करती रही हैं। लेकिन उनके इस काम को कभी भी रोज़गार के अवसर के रुप में नहीं देखा गया। न ही उन्होंने कभी अपने हुनर को कभी आय का ज़रिया बनाने का सोचा है।
महाराष्ट्र के पुणे में सस्टेनेबल आर्किटेक्चर से जुड़ी ध्रुवांग हिमगिरे और प्रियंका गुर्जर के मुताबिक उन्हें अपने काम में सबसे ज्यादा मुश्किल कुशल कारीगर ढूंढने में होती है। जब वो किसी जगह पर मिट्टी का घर बनाते हैं तो उनकी कोशिश होती है कि ज्यादातर स्थानीय ग्रामीणो को ही वो इस काम में लगाएं क्योंकि इन लोगों को स्थानीय कंस्ट्रक्शन मटेरियल की अच्छी समझ होती है। लेकिन ऐसे कारीगर ढूंढना ही सबसे मुश्किल काम होता है। खासकर लकड़ी के फ्रेम तैयार करने का काम बेहद जटिल होता है जो आधुनिक कार्पेंटर्स अच्छे से नहीं कर पाते।
"हमें पहले इन कार्पेंटर्स को ट्रेनिंग देनी होती है, काफी समझान होता है तभी ये वह काम कर पातें हैं जिसकी हमें अपेक्षा है। अगर हमें पुराने अनुभवी कारीगर मिलें तो हमारा काम आसान हो जाएगा।"
ध्रुवांग हिमगिरे, आर्किटेक्ट
ध्रवांग मिट्टी के घरों की डिमांड में बढ़ोतरी देख रहे हैं वो कहते हैं कि "हम साल में मुश्किल से 3-4 प्रोजेक्ट ही ले पाते हैं, लेकिन हमारे पास सैकड़ों ऐसे लोगों के कॉल आते हैं जो मिट्टी के घर बनवाना चाहते हैं। जैसे जैसे लोगों में पर्यावरण के प्रति सजगता आएगी यह मार्केट और ज्यादा ग्रो करेगा। तब कारीगरों की कमी सबसे बड़ी चुनौती होगी।"
हालांकि ध्रुवांग कहते हैं कि "मिट्टी के घरों का मुख्यधारा में लौट आना इतना आसान नहीं है ज्यादातर लोग सेकेंड होम के लिए हमसे संपर्क करते हैं, लेकिन हम केवल उन्हीं लोगों की मदद करते हैं जो अपना पहला घर मिट्टी से बनवाना चाहते हैं। गांवों में आप फिर से लोगों को मिट्टे के घरों की तरफ लौटने को नहीं कह सकते क्योंकि कंक्रीट का घर सामाजिक रुप से इंसानी संपन्नता का प्रतीक बन चुका है। इसे एक व्यक्ति की ग्रोथ से जोड़कर देखा जाता है।"
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