दलितों को याद रखना चाहिए 2 अप्रैल 2018 का “भारत बंद”

विचार : ललित कुमार सिंह

आज से ठीक दो साल पहले, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के खिलाफ आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विभिन्न संगठनों द्वारा 2 अप्रैल सोमवार को बुलाए भारत बंद में देश भर से व्यापक पैमाने पर हिंसा की खबरें आयीं और कई प्रदर्शनकारियों की मौत भी हुई. संगठनों की मांग थी कि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में संशोधन को वापस लेकर एक्ट को पहले की तरह लागू किया जाए.

भारत बंद के दौरान विभिन्न राज्यों में हिंसा देखने को मिली थी, जिसमें अन्य जाति के लोग और दलितों में भारी हिंसा हुई. मध्य प्रदेश के ग्वालियर, भिंड और मुरैना जिले में उपद्रव के दौरान चार लोगों की मौत हुई. ग्वालियर में एक कार्यकर्ता की गोली लगने से मौत हुई थी लेकिन गोली कहां से चली, किसने चलाई, यह आज तक किसी को नहीं पता.

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राजस्थान के अलग अलग पुलिस थानों में उन दलित-आदिवासी कार्यकर्ताओं की सूची तैयार की गई थी जो आंदोलनों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हों, ताकि पता चले कि किसे हिरासत में लिया जाये. कुल मिलाकर दलित और आदिवासी समुदाय को दबाने की कोशिश हुई थी.

उत्तरप्रदेश, बिहार, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश वगैरह राज्यों में भारत बंद के दौरान अनगिनत दलित-आदिवासी कार्यकर्ताओं पर फर्ज़ी मुकदमें दर्ज हुए.
मीडिया के एक हिस्से ने पूरा दिन यही दिखाया कि केवल दलितों ने हिंसा की. लेकिन बाद में पता चला कि भाजपा के कार्यकर्ता और संघ परिवार के लोग ही ज़्यादातर हिंसा में शामिल थे. मध्यप्रदेश में एक शख़्स हाथ में बंदूक लेकर दलित समाज के आंदोलनकारी टोले पर गोलियां बरसा रहा था वह वीडीयो मीडिया में पूरा दिन दिखाया गया लेकिन किसी ने उसकी गिरफ्तारी पर ज़ोर नहीं लगाया.

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जिस प्रकार एट्रोसिटीज़ कानून को खत्म करने के खिलाफ 2 अप्रैल को भारत बंद हुआ वह दलित-आदिवासी आंदोलन के इतिहास में यादगार रहेगा. भारत में दलितों के ऐसे आंदोलन की बेहद ज़रुरत है. यदि यह आंदोलन नहीं होता तो दलित-आदिवासी समुदायों को सुरक्षा प्रदान करनेवाला एट्रोसिटीज़ का कानून भी शायद खत्म हो चुका होता या खत्म होने की कगार पर होता. मोदी जी की सरकार में जिस प्रकार से दलित-आदिवासी समुदायो पर हमलें बढ़े हैं, यह कहना पड़ेगा की आनेवाले दिनों में हम इसी प्रकार भारत बंद को आवाज़ देने के लिए मजबूर हैं.

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