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दशकों से लटके पड़े किशाऊ बांध प्रोजेक्ट को मंजूरी देने वाली है सरकार, डूब जाएगी टोंस वैली सभ्यता

भारत सरकार उत्तराखंड और हिमाचल की बॉर्डर पर टोंस वैली में किशाऊ डैम परियोजना को मंज़ूरी देने का मन बना चुकी है, जिसे पिछले कई दशकों से टाला जा रहा था।

By Pallav Jain
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Kishau Dam will displace people from Uttarakhand and Himachal

भारत सरकार उत्तराखंड और हिमाचल की बॉर्डर पर टोंस वैली में किशाऊ डैम परियोजना को मंज़ूरी देने का मन बना चुकी है, जिसे पिछले कई दशकों से टाला जा रहा था। टोंस नदी पर बनने वाला यह हाईड्रो पावर प्रोजेक्ट टिहरी के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा बांध होगा। इसकी वजह से हिमाचल और उत्तराखंड का 2,950 हेक्टेयर एरिया डूब जाएगा। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब उत्तरप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की प्यास बुझाने और उनकी बिजली की मांग को पूरा करने पहाड़ी क्षेत्र की टोंस नदी के आसपास बसी सभ्यता को अपना जीवन कुर्बान करना होगा।

विकास कुर्बानी मांगता है, कुर्बानी आदिवासियों, दलितों, गरीबों, किसानों, मज़दूरों, बेज़ुबान जानवर और जंगलों की। हाल ही में लखवार प्रोजेक्ट की वजह से डूबे घर और जंगल हमने देखे, हमने वो बेबस आंखें भी देखी जो अपने घरों को डूबने से नहीं बचा पाई।

किशाउ डैम प्रोजेक्ट टोंस नदी पर बनाया जाएगा जिससे उत्तऱाखंड के देहरादून से लगे जिले और हिमाचल के सिरमौर जिले के गांव प्रभावित होंगे।इसकी हाईट 236 मीटर होगी। प्रोजेक्ट से 660 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा साथ ही पांच राज्य हरियाणा राजस्थान, दिल्ली उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के 97 हज़ार हेक्टेयर एरिया को सिंचाई और पीने का पानी मिलेगा।

किशाउ डैम की परिकल्पना 1963 में की गई थी। यमुना नदी पर चांदनी डैम, लखवार और कोच डैम के साथ ही इसके बारे में भी सोचा गया था। लेकिन सिस्मिक ज़ोन होने और बड़ी मात्रा में बायोडावर्सिटी के नुकसान के आंकलन की वजह से इसे वर्षों तक टाला जाता रहा। फिर इस प्रोजेक्ट को लेकर राज्यों के बीच झगड़ा भी हुआ की किसको कितना फायदा मिलेगा, बाद में केंद्र सरकार ने कहा कि वो प्रोजेक्ट का 90 फीसदी खर्च उठाएगा और हिमाचल उत्तराखंड 10 फीसदी तो बात बन गई। अब इस प्रोजेक्ट पर सहमति बन चुकी है और काम जल्द शुरु हो जाएगा।

जिस जगह पर यह बांध बनेगा वो टोंस वैली कहलाती है, यहां उत्तराखंड और हिमाचल की सबसे उपजाउ जमीन मौजूद है, यहां के किसानों के लिए यह जमीन सोना है। उन्हें खेती कर ही इतना लाभ हो जाता है कि राज्य सरकार की मदद की ज़रुरत ही नहीं पड़ती। यहां किसान कई तरह की कैश क्रॉप्स उगाते हैं।

हिमाचल और उत्तराखंड के लोग इस प्रोजेक्ट का दशकों से विरोध कर रहे हैं। लेकिन सरकार ने इस बार उनकी मांगो को दरकिनार कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया है।

सरकारी फाईलों में जो नुकसान का आंकलन किया गया है वह स्थानीय लोगों के हिसाब से बहुत कम है। उनका कहना है कि इससे 30 गांव के 20 हज़ार लोग प्रभावित होंगे।

लोकल मीडिया के अनुसार इस प्रोजेक्ट से 2,950 हेक्टेयर ज़मीन डूब जाएगी जिसमें 1,498 हेक्टेयर हिमाचल और 1,452 हेक्टेयर उत्तराखंड की ज़मीन होगी। अनुमान के अनुसार 17 गांव के 701 परिवार के 5,498 लोगों को अपनी ज़मीन छोड़ दूसरी जगह जाना होगा। डूबने वाले क्षेत्र में 512 हेक्टेयर उपजाउ ज़मीन और 2,438 हेक्टेयर जंगल की ज़मीन शामिल है।

यह प्रोजेक्ट 2,438 हेक्टेयर में फैले जंगलों को नष्ट करने वाला है, इन जंगलों में कई ऐसी एनीमल और प्लांट स्पीशीज़ हैं जो पृथ्वी से एक्सटिंक्ट होने की कगार पर हैं या सिर्फ इ्नहीं जंगलों में पाई जाती हैं। यहां कई मैडिसिनल प्लांट्स पाए जाते हैं।

एक बार और सुनिए 81,300 पेड़, 631 लकड़ी के घर, 171 पक्के घर, 17 गांव के 701 परिवार, 8 मंदिर, 6 पंचायत, 2 हॉस्पिटल, 7 प्राईमेरी स्कूल, 2 सेकेंडरी स्कूल और एक कॉलेज की बनेगी जलसमाधि.

यहां के किसान बताते हैं कि यहां सब कुछ है, हमारी ज़मीन और मवेशियों के लिए भरपूर पानी है, हमारे बाग बगीचे हैं, यहां हम खुशी से रहते हैं। सरकार हमें यहां से हटाएगी तो कहां जमीन देगी। रेनुका डैम के मामले में तो अब तक लोगों को मुआवज़ा नहीं मिला, जमीन के बदले जमीन भी नहीं मिलती, मिलती भी है तो बंजर। यह कैसा खेल है…

अगर विस्थापन का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इससे सबसे ज्यादा दलित और आदिवासी प्रभावित होते हैं। बरसों से विकास के नाम पर इनके जंगलों और ज़मीन छीने जा रहे हैं। जब ज़मीन के बदले ज़मीन मिलती है या मुआवज़ा मिलता है तो दूसरों के खेत में काम कर जीवन यापन करने वाले दलितों को कुछ नहीं मिलता। जमींदारों को तो फिर भी मुआवज़ा मिल जाता है दलितों और आदिवासियों के हाथ आता है केवल विस्थापन।

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