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कोरोना ने सड़क पर रहने वाले बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेला

कोरोना महामारी ने न केवल आम परिवारों को प्रभावित किया है बल्कि सड़क पर रह कर ज़िंदगी गुज़ारने वाले बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेल दिया था.

By Charkha Feature
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Orphan children of India

मामूनी दास | दिल्ली | कोरोना महामारी ने न केवल आम परिवारों को प्रभावित किया है बल्कि सड़क पर रह कर ज़िंदगी गुज़ारने वाले बच्चों को अपराध की दुनिया में धकेल दिया था. बालकनामा में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, सड़क पर रहने वाले कई बच्चे जो प्लेटफॉर्म पर निर्भर थे या जिनके परिवार अपनी आजीविका के लिए रेलवे प्रणाली पर निर्भर थे, महामारी के दौरान जीवित रहने के लिए ड्रग्स, लौह अयस्क बेचने पर मजबूर हो गए थे. इतना ही नहीं, उन्हें चोरी करने या भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता था.

बालकनामा एक ऐसा समाचार पत्र है जो एक गैर सरकारी संस्था की मदद से बच्चों द्वारा प्रकाशित किया जाता है. इसमें दिल्ली, नोएडा, लखनऊ और आगरा में सड़क पर रहने वाले बच्चों के जीवन और समस्याओं को व्यापक कवरेज प्रदान किया जाता है. सामूहिक रूप से, ऐसे सभी बच्चों ने अपने परिवारों को नौकरी खोते हुए, भोजन के लिए संघर्ष करते हुए और घर का किराया देने के लिए पैसे की कमी के कारण बेसहारा होते देखा है. इतना ही नहीं, ऐसे बच्चों को भी पीने के पानी की कमी का भी सामना करना पड़ा है, उन्हें एक वक़्त के भोजन के लिए लंबी कतारों में इंतजार करना पड़ा है. उन्होंने अपने माता-पिता को कर्ज में डूबते देखा है. महामारी के प्रकोप और भारत में लॉकडाउन लागू होने के बाद, बालक नामा टीम ने अपने अप्रैल-मई संस्करण में इसका खुलासा किया था.

बालकनामा टीम ने महामारी के दौरान समाचार पत्र का प्रकाशन जारी रखने के लिए वस्तुतः सड़क पर उतर कर काम किया था. टीम ने एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया जहां कोई भी बच्चा संपादक को अपनी कहानियों के बारे में सूचित कर सकता था. इसे प्रकाशित करने वाली संस्था "चाइल्डहुड एन्हांसमेंट थ्रू ट्रेनिंग एंड एक्शन" (चेतना) के संस्थापक संजय गुप्ता के अनुसार, 'महामारी के दौरान बच्चों ने जूम कॉल करना सीखा, रिपोर्टिंग की बारीकियों को समझा, कहानियों के लिए अन्य स्ट्रीट चिल्ड्रन के साथ जुड़ने के लिए फोन का इस्तेमाल किया और इस दौरान भी बालकनामा का प्रकाशन जारी रखा.

वास्तविकता यह है कि कोरोना ने रेलवे स्टेशन से जुड़े परिवार समेत बच्चों की जिंदगी बद से बदतर बना कर दी थी. इसका एक उदाहरण साहिल (बदला हुआ नाम), है जो पढ़ाई में अच्छा था, उसकी मां ट्रेनों में तरह-तरह का सामान बेचकर रोजी-रोटी कमाती थी. लेकिन कोरोना के कारण उसकी कमाई पूरी तरह से बंद हो गई. जीवित रहने के लिए, उन्होंने कमिटी (पैसे जमा करने का एक अनौपचारिक संगठन) का पैसा निकाला, लेकिन जब वह भी ख़त्म हो गया तो उन्हें क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था. अगस्त 2020 में, बालकनामा ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कुछ बच्चे, जो रेलवे स्टेशनों पर कचरा बीनने वालों के रूप में काम करते थे, उन्हें कोरोना वायरस के प्रकोप के दौरान ड्रग्स बेचने के लिए मजबूर किया गया था. चरणबद्ध तरीके से जब लॉकडाउन हटाया जाने लगा तो उस समय भी मुश्किल से चार से पांच ट्रेनें ही चल रही थीं. उस दौरान कुछ बच्चे दिल्ली स्थित हजरत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर कूड़ा बीनने का काम करते थे. लेकिन स्टेशन बंद होने के कारण उनकी आय के स्रोत ख़त्म हो गए, जिसका फायदा अपराधी प्रवृति के लोगों ने उठाया और इनसे गैर कानूनी काम करवाना शुरू कर दिया.

उक्त समाचार पत्र में यह भी चर्चा की गई कि कोरोना महामारी के दौरान ट्रेन यात्रियों का व्यवहार कैसे बदल गया. रिपोर्ट के अनुसार ट्रेनें पहले की अपेक्षा साफ-सुथरी रहने लगी थीं और पानी की बोतलें अब फेंकी नहीं जाती थीं, इसका मतलब था कि अब इन बच्चों को प्लास्टिक की खाली बोतलें मिलनी मुश्किल थीं. इस तरह यह बच्चे ड्रग्स और शराब के आदी हो गए. इस दौरान एक बदलाव यह भी रहा कि लोग अब पहले की अपेक्षा ट्रेनों में अपना खाना-पीना अधिक ले जाने लगे थे. इससे जो बच्चे ट्रेनों में खाने-पीने का सामान बेचकर पैसा कमाते थे, वे कमाई के वैकल्पिक रास्ते तलाशने लगे.

सितंबर 2021 के बालकनामा अंक के अनुसार, इस दौरान कुछ बच्चों को लोहे की छड़ें चुराने के लिए भी मजबूर किया गया था. न्यूज़लेटर में उन बच्चों और परिवारों का भी उल्लेख है, जिन्हें इस दौरान भीख मांगने के धंधे में धकेल दिया गया था. कोरोना के दौरान बच्चों को कम तनख्वाह दी जाती थी और परिवार भी एक वक्त के खाने से ही गुजारा करने को मजबूर थे. बालकनामा के पत्रकारों ने पाया कि दिल्ली के सराय काले खां इलाके में कुछ बच्चों को दिव्यांग भिखारी अपने साथ बसों में भीख मांगने के लिए 300 रुपये प्रतिदिन या 150 रुपये आधे दिन के लिए किराए पर ले जाते थे.

ऐसे अनगिनत बच्चों के उदाहरण हैं जो सरकारी, निजी और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाई जा रही विभिन्न सामाजिक योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाए थे. युवा पत्रकारों की एक टीम के अनुसार, कोरोना महामारी के दौरान दिल्ली के सराय काले खां इलाके के पास कूड़ा बीनने वाले 30 बच्चों के एक समूह के पास भोजन या दवा खरीदने तक के पैसे नहीं थे. अफसोस की बात है कि इन बच्चों के पास पहनने के लिए कपड़े तक नहीं थे. उनके पास न तो आधार कार्ड था और न ही कोई अन्य पहचान पत्र, जिसके कारण उन्हें किसी  प्रकार की सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल सका था. स्कूलों में खाना बांटने के लिए उन्हें भीषण गर्मी में घंटों इंतजार करना पड़ता था. बालकनामा टीम से उन्होंने आश्रय गृह में आश्रय के लिए मदद मांगी ताकि उन्हें भोजन मिल सके. न्यूजलेटर में यह भी बताया गया है कि कैसे स्ट्रीट चिल्ड्रन को आधार कार्ड तक बनवाने के लिए अतिरिक्त पैसे खर्च करने पड़ते थे. (चरखा फीचर)

लेखिका वर्क नो चाइल्ड बिज़नेस की फेलो रही है, इस लेख में व्यक्त किेये गए विचार लेखिका के निजी विचार हैं, ग्राउंड रिपोर्ट ने इसमें किसी प्रकार का कोई संपादन नहीं किया है।

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