पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा का एक पुराना इतिहास रहा है। शायद ही बंगाल में कोई ऐसा चुनाव गुज़रा हो जिसमें हिंसा न हुई हो। बंगाल की राजनीति में इतनी हिंसा के पीछे कौन है? बंगाल चुनाव मे इतने बड़े पैमाने में आख़िर हिंसा क्यो होती है ? ये सवाल आज भी उठ रहे हैं और जवाब की तलाश में हैं।
पश्चिम बंगाल में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी बड़े ही आक्रमण अंदाज़ में नज़र आ रही है। हालही में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के काफिले पर हुए हमले से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आने वाले विधानसभा चुनाव में क्या माहौल रहने वाला है।
चाहे वह चुनाव हो या फिर इलाके की दखल की होड़, खूनी संघर्ष और राजनीतिक हत्या इसका हिस्सा बन गया है। यह आशंका भी उभर कर आई है कि अभी तक चुनाव प्रचार अच्छा से शुरू भी नहीं हुआ है। उस समय हिंसा का यह रूप है, तो जब चुनाव का उद्घोष होगा। उस समय क्या होगा?
वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी कहते हैं, “पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा कोई नई बात नहीं। जब भी सत्तारूढ़ पार्टी खुद को कमज़ोर पाती है और कोई नई पार्टी चुनौती देती हुई आती है तो हिंसा होना तय ही है”
वो कहते हैं, “पश्चिम बंगाल सिद्धार्थ शंकर रे के ज़माने से पिछले चार दशकों से चुनावी हिंसा का गवाह रहा है। 70 के दशक में जब सीपीएम उभर रही थी तब और जब 90 के दशक के अंतिम सालों में तृणमूल सीपीएम को चुनौती दे रही थी तब भी हिंसा का चर्म पर थी”
पश्चिम बंगाल का इतिहास खूनी संघर्ष का गवाह रहा है। वर्ष 1959 के खाद्य आंदोलन के दौरान 80 लोगों की जान गई थी, जिसे वामपंथियों ने कांग्रेस की विपक्ष को रौंदकर वर्चस्व कायम करने की कार्रवाई करार दिया था।
1967 में सत्ता के खिलाफ नक्सलबाड़ी से शुरू हुए सशस्त्र आंदोलन में सैकड़ों जानें गईं थीं। वर्ष 1971 में जब कांग्रेस की सरकार बनी और सिद्धार्थ शंकर रॉय मुख्यमंत्री बने तो बंगाल में राजनीतिक हत्याओं का जो दौर शुरू हुआ, उसने सभी हिंसा को पीछे छोड़ दिया।
वर्ष 1977 से 2011 तक वाममोर्चा के 34 वर्षों के शासनकाल में पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का दौर चला।
अप्रैल, 1982 में कोलकाता के बिजन सेतु के पास 17 आनंदमार्गियों को जिंदा जला दिया गया और आरोप सपीआईएम पर लगा।
बता दें कि इसके पहले भी बीजेपी के नेताओं पर लगातार हमले होते रहे हैं और बीजेपी के नेता राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर रहे हैं, ताकि बंगाल में निष्पक्ष चुनाव हो सके। अब आने वाले विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में हिंसा न हो ऐसा तो मुश्किल ही नज़र आता है।
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