उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सर ज़मीं को यूं तो सूबे की ‘सियासत का मरकज़’ कहा जाता रहा है, मगर ये सर ज़मीं हमेशा से ‘इल्म-ओ-अदब’ के नाम से जानी पहचानी गई है। इस शहर-ए-लखनऊ ने ऐसे-ऐसे दानिशवर (बुद्धिजीवी) शख़्सियतों को परवान चढ़ाया, जिन्होंने अपने इल्म की रौशनी से केवल सर ज़मीन-ए-हिंद ही नहीं बल्कि दुनिया भर को रौशन किया और देश का नाम बैनलअक़वामी ( अंतरराष्ट्रीय ) सतह पर बुलंद किया।
ऐसी ही एक जानी-मानी शख़्सियत जिन्हें डॉ.कल्बे सादिक़ के नाम से जाना जाता रहा, वे दुनिया को अलविदा कह गए। सूबे में गंगा जमुनी तहज़ीब के हामी-ओ-नासिर रहे डॉ. सादिक़ का अलालत के एक लंबे दौर से गुज़रने के बाद 24 नंवबर, रात लगभग 10 : 30 के आस-पास लखनऊ के एरा हॉस्पिटल में इन्तेक़ाल (निधन) कर गए। वे कैंसर, गंभीर निमोनिया और संक्रमण से पीड़ित थे। वो अपने पीछे तीन बेटे, एक बेटी और परिवार छोड़ गए हैं।
कौन थे डॉ. कल्बे सादिक़
मौलाना डा.कल्बे सादिक़ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष और इस्लामी स्कॉलर थे। लखनऊ ही नहीं बल्कि दुनिया भर में शिया धर्मगुरु के रूप में एक अलग पहचान रखने वाले मौलाना कल्बे सादिक़ पूरी ज़िंदगी शिक्षा को बढ़ावा देने और मुस्लिम समाज से रूढ़िवादी परंपराओं के ख़ात्मे के लिए कोशिश करते रहे।
मुस्लिम धर्मगुरु होने के अलावा मौलाना कल्बे सादिक़ एक समाज सुधारक भी थे । शिक्षा को लेकर वे काफ़ी गंभीर रहे और लखनऊ में उन्होंने कई शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कराई। वो पहले मौलाना थे जिन्होंने शिया-सुन्नी लोगों को एक साथ नमाज़ पढ़ाई।
साल 1939 में लखनऊ में जन्मे डॉ. कल्बे सादिक़ की प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई थी। लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद उच्च शिक्षा उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हासिल की। अलीगढ़ से ही उन्होंने एमए और पीएचडी की डिग्री हासिल की।
डा.कल्बे सादिक़ की तक़रीरें और मजलिसें पूरी दुनियां में पसंद की जाती थीं। उन्होंने हिंदू-मुसलमानों और शिया-सुन्नी के बीच किसी भी खायी को भरने के लिए मोहब्बत और एकता के पैग़ाम दिए। वो कहते थे कि अस्ल मज़हब जोड़ता है तोड़ता नहीं है। जो तोड़े वो मज़हब सियासत होती है।
डा. कल्बे सादिक़ ऐसे तरक्क़ीपसंद शिक्षाविद थे। जिन्होंने कहा था कि हाथ में बंदूक थामकर कोई समाधान नहीं निकाला जा सकता है। बेगुनाहों के ख़ून से हाथ लाल करने वाले इस्लाम को मानने वाले नहीं हो सकते। वह कहते थे कि किसी भी किस्म के आतंकवाद का वास्ता किसी भी मज़हब से नहीं हो सकता।
वे एरा यूनिवर्सिटी, यूनिटी कॉलेज,और तमाम शैक्षणिक संस्थाओं के अलावा चैरिटेबल ट्रस्ट के संस्थापक सदस्य रहे। 1984 में उन्होंने तौहीदुल मुस्लेमीन ट्रस्ट क़ायम किया। जिसमें गरीब बच्चों की पढ़ाई मे मदद और मेधावी छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्ति दी जाती है।
उनके यूनिटी कॉलेज ने शैक्षणिक संस्थाओं में एक अलग पहचान बनाई। इस कालेज की दूसरी शिफ्ट में मुफ्त तालीम दी जाती है। अलीगढ़ में एम यू कॉलेज क़ायम किया। टेक्निकल कोर्सेज़ के लिए इंडस्ट्रियल स्कूल बनाया। लखनऊ के काज़मैन में चेरिटेबल अस्पताल शुरू किया।
वर्ष 1969 में किसी दूसरे मुल्क में मोहर्रम में अशरा (दस दिन) की मजलिस पढ़ने वाले वह पहले मौलाना बने। मौलाना सादिक के बेटे डॉ. कल्बे सिब्तैन बताते हैं कि लखनऊ की अज़ादारी को उन्होंने अमेरिका, यूएई, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, लंदन, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, फ्रांस के अलावा यूरोप के अन्य देशों में पहुंचाया।
पिछले साल एक इंटरव्यू में मौलाना की तबीयत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने मशहूर मर्सिया निगार मीर अनीस की मिसाल देते हुए कहा कि मीर अनीस काफी बीमार थे, मिर्ज़ा दबीर ने अनीस से शायराना अंदाज़ में पूछा कि कहिए मिज़ाज आपके अब तो बखैऱ हैं? मीर अनीस ने जवाब दिया पैमाना भर चुका है, छलकने की देर है..। वही हाल अब मेरा है। अब मौत का इंतज़ार कर रहे हैं बस।
इल्म-ओ-अदब का ये माया नाज़ सितारा 83 बरस की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गया। लंबी अलालत के बाद 24 नंवबर को लखनऊ के एरा हॉस्पिटल में अपनी ख़ारी सांस ली। वे कैंसर, गंभीर निमोनिया और संक्रमण से पीड़ित थे ।
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