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भारत में कार्बन बाज़ार: संतुलित दृष्टिकोण की ज़रूरत

अनिवार्य कार्बन बाज़ार एक निर्धारित नियम कैप-एंड-ट्रेड प्रणाली के तहत काम करता है। इन बाज़ारों में सरकारों या अन्य प्राधिकरणों द्वारा कंपनियों को एक निश्चित सीमा तक ही कार्बन उत्सर्जित करने की अनुमति मिलती है।

By Ground Report Desk
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अशोक श्रीनिवास, आदित्य चुनेकर | स्रोत विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी फीचर्स | ह सही है कि भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन और अतीत में किया गया उत्सर्जन दोनों वैश्विक औसत से काफी कम हैं, लेकिन फिर भी भारत जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाली ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। इसके जवाब में, भारत ने अपने जीएचजी उत्सर्जन को सीमित करने के लिए कई सक्रिय कदम उठाए हैं। जैसे, औद्योगिक ऊर्जा दक्षता में सुधार के लिए परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना शुरू की गई है और साथ ही नवीकरणीय खरीद अनिवार्यता (आरपीओ) भी लागू की गई है। प्रस्तावित कार्बन बाज़ार भी इसी तरह का एक उपाय है। पिछले कुछ वर्षों में, भारत ने घरेलू कोटा-अनुपालन कार्बन बाज़ार की स्थापना के लिए रूपरेखा तैयार की है। इसके अंतर्गत ऊर्जा संरक्षण अधिनियम में संशोधन और कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना (CCTS) की अधिसूचना शामिल हैं। उम्मीद है कि प्रस्तावित योजना के बारे में और अधिक विवरण जल्द ही पेश किए जाएंगे और संभवत: प्रारंभ में चार क्षेत्रों - लोहा और इस्पात, सीमेंट, पेट्रोकेमिकल्स और पल्प एंड पेपर - पर केंद्रित होंगे। इस लेख में, हम भारत के लिए प्रस्तावित कार्बन बाज़ार योजना का विश्लेषण करेंगे। साथ ही, हम उन चुनौतियों पर भी चर्चा करेंगे जिन्हें संबोधित करना ज़रूरी है ताकि कार्बन बाज़ार भारत के कार्बन-मुक्तिकरण में लागतक्षम ढंग से असरदार हो सकें।

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वैश्विक कार्बन बाज़ार

कार्बन बाज़ार काफी समय से अस्तित्व में हैं। कार्बन बाज़ार दो प्रकार के होते हैं: स्वैच्छिक और अनिवार्य। स्वैच्छिक कार्बन बाज़ार या ऑफसेट बाज़ार में परियोजना चलाने वाले ऐसे तरीके अपनाते हैं जिससे उत्सर्जन कम हो सके। ऊर्जा दक्षता बढ़ाकर, नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके या ईंधन परिवर्तन के माध्यम से कम किए गए कार्बन उत्सर्जन को ऑफसेट कहते हैं। इसके अलावा कार्बन कैप्चर, युटिलाइज़ेशन एंड स्टोरेज (सीसीयूएस) परियोजनाओं या वनीकरण परियोजनाओं के ज़रिए वायुमंडल से कार्बन हटाकर भी ऑफसेट उत्पन्न किए जा सकते हैं। इन ऑफसेट को स्वतंत्र एजेंसियां विभिन्न वैश्विक मानकों के आधार पर सत्यापित करती हैं। कई कंपनियां ये ऑफसेट खरीदकर अपने स्वयं के कार्बन उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य पूरा करती हैं। इस खरीद के लिए कई रजिस्ट्रियां व व्यापार मंच हैं।

अनिवार्य कार्बन बाज़ार एक निर्धारित नियम कैप-एंड-ट्रेड प्रणाली के तहत काम करता है। इन्हें एमिशन ट्रेडिंग स्कीम (ईटीएस) भी कहा जाता है। इन बाज़ारों में सरकारों या अन्य प्राधिकरणों द्वारा कंपनियों को एक निश्चित सीमा तक ही कार्बन उत्सर्जित करने की अनुमति मिलती है। जो कंपनियां अपनी निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जित करती हैं, वे अपने बचे हुए कार्बन क्रेडिट उन कंपनियों को बेच सकती हैं जो अपने लक्ष्य से अधिक उत्सर्जन करती हैं। इसका उद्देश्य कंपनियों को यह अनुमति देना है कि या तो वे कार्बन क्रेडिट खरीदें या अपनी तकनीक में सुधार करके कार्बन उत्सर्जन को कम करें। कुछ अनिवार्य बाज़ार, एक निश्चित प्रतिशत को स्वैच्छिक बाज़ार से पूरा करने की भी अनुमति देते हैं।

इस समय दुनिया भर में लगभग 37 उत्सर्जन ट्रेडिंग योजनाएं (ईटीएस) लागू हैं - 1 क्षेत्रीय स्तर पर, 13 राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी उप-राष्ट्रीय स्तर पर हैं। लगभग 24 अन्य योजनाएं विभिन्न स्तरों पर विचाराधीन या विकासाधीन हैं। तीन सबसे बड़े ईटीएस युरोपीय संघ (ईयू), कैलिफोर्निया और चीन में हैं। इन योजनाओं के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जानने योग्य हैं।

पहली, इन तीनों योजनाओं को स्थिर होने में काफी समय लगा है। युरोपीय संघ ईटीएस को 2005 में शुरू किया गया था और तब से लेकर अब तक इसमें चार चरणों में कई सुधार हुए हैं। कैलिफोर्निया की कैप एंड ट्रेड (CaT) योजना 2013 में शुरू हुई थी और इसके बाद से इसमें भी कई सुधार हुए हैं। चीन का ईटीएस लगभग 9 साल के उप-राष्ट्रीय पायलट कार्यक्रमों के बाद शुरू हुआ था। 

दूसरी, युरोपीय संघ ईटीएस और कैलिफोर्निया CaT के लक्ष्य पूर्ण उत्सर्जन (absolute emissions) पर आधारित हैं जबकि चीन का ईटीएस उत्सर्जन तीव्रता (emission intensity) पर आधारित है। युरोपीय संघ ईटीएस का लक्ष्य निर्धारित सेक्टर्स में उत्सर्जन को 2005 की तुलना में 2030 तक 62 प्रतिशत कम करना है। यह लक्ष्य 2030 तक उत्सर्जन में 55 प्रतिशत की कमी के युरोपीय संघ के समग्र लक्ष्य के साथ मेल खाता है। इस योजना में, हर साल निर्धारित क्षेत्रों के लिए उत्सर्जन की कुल मात्रा एक निश्चित दर से लगभग 5.1 प्रतिशत, से घटाई जाती है। इसी प्रकार, कैलिफोर्निया की योजना में भी 2030 तक हर साल उत्सर्जन की कुल मात्रा लगभग 4 प्रतिशत घटाई जाएगी ताकि 1990 की तुलना में 2030 तक 40 प्रतिशत कमी का लक्ष्य पूरा हो सके। दूसरी ओर, चीन की योजना उत्सर्जन तीव्रता (यानी प्रति इकाई उत्पादन पर प्रति टन उत्सर्जित कार्बन) के लक्ष्यों पर आधारित है, जिसमें कुल उत्सर्जन पर कोई सीमा नहीं है। इसकी हर दो साल में समीक्षा की जाती है।

तीसरी, समय के साथ और तीनों ईटीएस के कार्बन की कीमत में काफी भिन्नता रही है। कार्बन क्रेडिट की कीमत निर्धारित करने में लक्ष्य की महत्वाकांक्षा के स्तर, दीर्घकालिक निश्चितता और प्रवर्तन तंत्र की प्रभावशीलता के साथ-साथ देश-विशिष्ट के तकनीकी और आर्थिक कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

भारत की स्थिति

ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) ने अक्टूबर 2022 में भारतीय कार्बन बाज़ार (आईसीएम) पर एक मसौदा नीति पत्र जारी किया था। इसके बाद, दिसंबर 2022 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन करके बीईई को कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम (CCTS) लागू करने का अधिकार दिया गया। इस योजना को जून 2023 में अधिसूचित किया गया और अक्टूबर 2023 में बीईई ने अनिवार्य प्रणाली और कार्बन सत्यापन एजेंसियों की मान्यता की पात्रता और प्रक्रिया के ड्राफ्ट विवरण जारी किए। इसके बाद दिसंबर 2023 में, CCTS में एक संशोधन किया गया ताकि स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार की अनुमति दी जा सके।

ड्राफ्ट नीति पत्र ने भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए चरणबद्ध दृष्टिकोण का प्रस्ताव दिया, जिसमें पायलट चरण को 1 जनवरी, 2023 तक लागू करने की योजना थी। हाल ही में बीईई ने सूचित किया है कि इस योजना का पहला चरण 2024 में चार प्रमुख क्षेत्रों के लिए शुरू किया जाएगा। यहां भारत में प्रस्तावित CCTS की मुख्य बातें साझा कर रहे हैं।

CCTS का कानूनी आधार पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (ईपीए), 1986 और ऊर्जा संरक्षण अधिनियम (ईसीए), 2001 (2022 में संशोधित) से आता है। इस योजना के नोडल मंत्रालय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) तथा विद्युत मंत्रालय (MoP) होंगे, और इसका प्रबंधन बीईई द्वारा किया जाएगा। आईसीएम का संचालन एक राष्ट्रीय संचालन समिति द्वारा किया जाएगा। भारत का ग्रिड नियंत्रक कार्बन क्रेडिट का पंजीयक होगा और केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (CERC) ट्रेडिंग गतिविधियों का नियमन करेगा। वर्तमान में मौजूद तीन पॉवर एक्सचेंज कार्बन क्रेडिट के लिए खरीद-फरोख्त प्लेटफॉर्म होंगे। आईसीएम की संस्थागत संरचना मौजूदा परफॉर्म, अचीव एंड ट्रेड (पीएटी) योजना के समान रहेगी जिसका विलय अंतत: CCTS में कर दिया जाएगा।

जून 2023 में अधिसूचित CCTS में केवल उन्हीं संस्थाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जिन्हें उत्सर्जन के लक्ष्य दे दिए जाएंगे। इस तरह से यह एक अनिवार्यता बाज़ार था। लेकिन, दिसंबर 2023 की अधिसूचना ने आईसीएम के दायरे को स्वैच्छिक ऑफसेट कार्बन बाज़ार तक बढ़ा दिया, जिसकी रूपरेखा और कार्यप्रणाली जल्द ही जारी होगी। 

यहां हम प्रस्तावित योजना के तीन प्रमुख पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो इसकी प्रभाविता के लिए महत्वपूर्ण होंगे: CCTS की निगरानी के लिए संस्थागत तंत्र, लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया और योजना की प्रवर्तन सम्बंधी प्रक्रिया।

संस्थान और संचालन

बीईई भारतीय कार्बन बाज़ार के लिए CCTS का प्रबंधन करेगा जबकि देख-रेख एवं निगरानी का काम राष्ट्रीय संचालन समिति (एनएससी) द्वारा किया जाएगा। एनएससी में विभिन्न मंत्रालयों (बिजली मंत्रालय, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, नवीन व नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, इस्पात मंत्रालय, कोयला मंत्रालय, रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय आदि) के संयुक्त सचिव और पांच बाहरी विशेषज्ञ शामिल होंगे। एनएससी का काम CCTS के लक्ष्य निर्धारित करना (बीईई की सिफारिशों के आधार पर) और प्रक्रियाएं बनाना होगा। वह विशिष्ट विशेषज्ञता वाले तकनीकी विशेषज्ञों के समूह भी बना सकता है। हर तीन माह में एक बैठक का आयोजन किया जाएगा। लेकिन एनएससी में नियुक्त उच्च अधिकारियों की व्यस्तता को देखते हुए, यह संभव है कि एनएससी मात्र एक औपचारिक निकाय रहे और सिर्फ बीईई या कामकाजी समूहों की सिफारिशों को मान ले। इससे एनएससी द्वारा बीईई की निगरानी करने का उद्देश्य कमज़ोर हो सकता है। इसके अलावा, बीईई विद्युत मंत्रालय के अधीन है, जो बिजली उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार है और बिजली उत्पादन उत्सर्जन के बड़े स्रोतों में से एक है। बेहतर होता कि यह किसी ‘तटस्थ’ एजेंसी के अधीन होता।

हालांकि, बीईई के पास ऊर्जा दक्षता और संरक्षण तथा पीएटी स्कीम के प्रबंधन का लंबा अनुभव है, लेकिन कार्बन बाज़ार की देख-रेख अलग तरह की चुनौती है। चूंकि उत्सर्जन कई स्रोतों से हो सकता है और इसकी निगरानी ऊर्जा दक्षता की निगरानी से अलग है, इसलिए बीईई को इस नई ज़िम्मेदारी के लिए अधिक तैयारी करना होगी। अर्थ व्यवस्था पर इसके व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए CCTS के प्रबंधन के लिए पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय के अधीन कोई एजेंसी अधिक उपयुक्त होगी। अन्य देशों में, इस तरह के कार्य पर्यावरण एजेंसियों द्वारा किए जाते हैं। 

इस योजना की देख-रेख दो बड़े मंत्रालयों - पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन (MoEFCC) और बिजली मंत्रालय MoP - द्वारा की जाने से प्रक्रिया अधिक जटिल हो जाती है। इसके अलावा उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया बहुत लंबी है और कई चरणों में बंटी हुई है। इसमें तकनीकी समिति से शुरू होकर, बीईई, एनएससी, MoP और अंत में MoEFCC की सिफारिशें शामिल होंगी। इसके चलते यह प्रक्रिया बहुत जटिल और धीमी होने की आशंका है। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि यदि एक एजेंसी की सिफारिशें अगली एजेंसी को पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हुईं तो क्या होगा। इसे सरल और पारदर्शी बनाना चाहिए, ताकि इसमें शामिल सभी एजेंसियों की भूमिकाएं और ज़िम्मेदारियां स्पष्ट रहें।

उत्सर्जन लक्ष्यों का निर्धारण

CCTS को प्रभावी बनाने के लिए बाज़ार के प्रतिभागियों के लिए उत्सर्जन कोटा तय करना सबसे महत्वपूर्ण है। इसी कोटे पर निर्भर करेगा कि कोई प्रतिभागी नई तकनीक में निवेश करे या क्रेडिट खरीदने का निर्णय करे।

यदि इन लक्ष्यों को बहुत ढीला रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत अधिक है तो इसके दो परिणाम होंगे। पहला, यह डीकार्बोनाइज़ेशन के उद्देश्य को आगे नहीं बढ़ाएगा तथा प्रतिभागियों के पास उत्सर्जन को कम करने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं होगा। दूसरा, चूंकि प्रतिभागियों के लिए निर्धारित कोटा हासिल करना आसान होगा, बाज़ार में कार्बन क्रेडिट की अधिकता हो जाएगी। इस स्थिति में कार्बन क्रेडिट की कीमतें भी नीचे आ जाएंगी।

दूसरी ओर, अगर लक्ष्यों को बहुत सख्त रखा जाता है यानी उत्सर्जन कोटा बहुत कम है तो लक्ष्य को पूरा करने के लिए निवेश की आवश्यकता अधिक होगी। इससे बाज़ार में क्रेडिट की कमी हो जाएगी और कीमतें बहुत अधिक बढ़ जाएंगी, उन्हें खरीदना मुश्किल हो जाएगा। इससे भारतीय उद्योग वैश्विक प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले कमज़ोर हो सकते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव उन उद्योगों पर होगा जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं। नतीजतन वस्तुओं की कीमतें बढ़ भी सकती हैं। इसलिए, उत्सर्जन कोटा या लक्ष्य सही स्तर पर निर्धारित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

बीईई द्वारा संचालित पीएटी योजना ने उद्योगों की ऊर्जा दक्षता सुधारने के लिए ऊर्जा तीव्रता लक्ष्य दिए थे। प्रस्तावित CCTS भी मुख्य रूप से पीएटी योजना पर आधारित है, जिसमें उद्योगों को उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य देने का प्रस्ताव है। पीएटी योजना के अनुभव से पता चलता है कि इसके लक्ष्य शिथिल थे, जिससे बाज़ार में एनर्जी सेविंग सर्टिफिकेट (ESCerts) की अधिकता हुई और उनकी कीमतें काफी कम हो गईं। इसके अलावा, उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि इन शिथिल लक्ष्यों को भी ठीक से लागू नहीं किया गया यानी उन सभी भागीदारों ने ESCerts नहीं खरीदे, जो ऐसा करने के लिए बाध्य थे। इस अनुभव और अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के आधार पर हम भारत में उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य विकसित करते समय ध्यान देने योग्य कुछ मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।

लक्ष्य तय करने की पद्धति: उत्सर्जन लक्ष्य तय करने के लिए एक पारदर्शी और स्पष्ट पद्धति होना चाहिए, जो विभिन्न सेक्टर्स के अनुसार निर्धारित की जा सके। इससे बाज़ार के प्रतिभागी अधिक स्पष्टता और विश्वास के साथ योजनाएं बना सकेंगे।

लक्ष्यों की स्पष्टता: कंपनियों को योजना में सही तरीके से भाग लेने के लिए दीर्घकालिक और स्पष्ट लक्ष्य चाहिए। इससे उन्हें अपनी निवेश योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी। पीएटी योजना में केवल 3 साल के लक्ष्य होते हैं, जो निवेश की योजना के लिए बहुत कम समय है। इसकी बजाय, ईयू में 2030 तक के वार्षिक लक्ष्य तय किए गए हैं। भारतीय CCTS में भी 2030 तक के लक्ष्य रखे जा सकते हैं और 2026 या 2027 में 2035 तक के लक्ष्य घोषित किए जा सकते हैं।

सेक्टर-आधारित लक्ष्य: पीएटी योजना में हर कंपनी को अलग-अलग ऊर्जा लक्ष्य दिए जाते थे, जिससे योजना काफी जटिल हो जाती है क्योंकि लक्ष्य निर्धारित करने का प्रमुख आधार बेसलाइन होता है। इससे मौजूदा अक्षमताओं को नज़रअंदाज़ किया जाता है और उन लोगों को प्रोत्साहन नहीं मिलता जिन्होंने पहले ही सुधार कर लिए हैं। इसलिए, पूरे सेक्टर के लिए एक ही उत्सर्जन लक्ष्य रखना बेहतर होगा, जैसे पूरे लोहा और इस्पात क्षेत्र के लिए एक ही लक्ष्य निर्धारित करना अधिक बेहतर विकल्प है। ईयू ईटीएस और CaT में यही होता है। यह लक्ष्य क्षेत्र के सर्वोत्तम प्रदर्शनकर्ताओं के आधार पर हो सकता है। यदि छोटे और मध्यम उद्योगों (SMEs) को विशेष मदद की ज़रूरत है, तो बड़े उद्योगों और SMEs के लिए अलग-अलग लक्ष्य रखे जा सकते हैं।

लक्ष्य का स्तर: उत्सर्जन लक्ष्यों को सही स्तर पर रखना बहुत महत्वपूर्ण है ताकि डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद मिले और उद्योग प्रतिस्पर्धी बने रहें। भारत के पास पहले से ही कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय लक्ष्य हैं। जैसे, राष्ट्रीय रूप से निर्धारित योगदान कि उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 45 प्रतिशत कम किया जाएगा और सभी बिजली उपभोक्ताओं के लिए नवीकरणीय ऊर्जा खरीदना अनिवार्य किया जाएगा। नए लक्ष्य इन्हीं को ध्यान में रखते हुए निर्धारित करने चाहिए। हालिया रुझानों से पता चलता है कि 2005 और 2019 के बीच भारत अपनी उत्सर्जन तीव्रता में 33 प्रतिशत की कमी कर चुका है।

अन्य बाजारों के साथ सम्बंध: CCTS कार्बन क्रेडिट्स का एकमात्र बाज़ार नहीं है। अन्य प्रस्तावों में स्वैच्छिक ऑफसेट बाज़ार और ‘ग्रीन क्रेडिट्स' योजना को शामिल किया गया है। फिलहाल, यह स्पष्ट नहीं है कि ये बाज़ार कैसे एक साथ काम करेंगे। अलग-अलग बाज़ारों में कार्बन क्रेडिट्स की कीमत अलग-अलग हो सकती है। बीईई के पास वनीकरण जैसी गतिविधियों से कार्बन क्रेडिट्स का मूल्यांकन करने की विशेषज्ञता नहीं है। इसलिए शुरुआत में, अनिवार्य कार्बन बाज़ार को अलग रखना बेहतर होगा। बाद में, जैसे-जैसे बाज़ार मज़बूत होंगे, कुछ अनिवार्य बाज़ार को ऑफसेट बाज़ार के माध्यम से पूरा करने की अनुमति दी जा सकती है।

लक्ष्यों को लागू करवाना

कंपनियों के लिए उचित लक्ष्य निर्धारित करना महत्वपूर्ण है, लेकिन पूरी प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि लक्ष्यों को पूरा नहीं कर पाने वाली कंपनियों को कार्बन क्रेडिट खरीदवाने की सामर्थ्य कितनी है। यदि वे ऐसा नहीं करतीं, तो उन पर सख्त दंडात्मक कार्रवाई होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो उद्योगों के लिए निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने का कोई प्रोत्साहन/कारण नहीं रह जाएगा।

प्रस्तावित CCTS की मॉडल योजना – पीएटी - ने इसके पर्याप्त साक्ष्य प्रदान किए हैं। पीएट के पहले चरण में केवल 8 प्रतिशत गैर-अनुपालन देखा गया यानी आवश्यक ESCerts में से 92 प्रतिशत ही खरीदे गए। शायद इसलिए कि इस गैर-अनुपालन पर कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई। और तो और, पीएटी के दूसरे चरण में कई बार समय सीमा बढ़ाने के बाद भी अनुपालन दर 50 प्रतिशत तक गिर गई।

पीएटी के तहत दोषी कंपनियों के विरुद्ध दंडात्मक प्रावधान लागू किए जाने का कोई सार्वजनिक डैटा उपलब्ध नहीं हैं। वास्तव में, पीएटी में दोषी कंपनियों पर दंड लगाने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। इसमें बीईई को सम्बंधित राज्य की प्राधिकृत एजेंसी को सूचित करना पड़ता है। प्राधिकृत एजेंसी इस बात का सत्यापन करती है कि सम्बंधित कंपनी ने लक्ष्य पूरा नहीं किया है और उसके बाद राज्य विद्युत नियामक आयोग (SERC) के समक्ष याचिका दायर करना पड़ती है जो ज़ुर्माना लगाने का काम करता है। यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि इसे सफलतापूर्वक लागू करना मुश्किल हो जाता है, खास तौर से तब जब अधिकांश प्राधिकृत एजेंसियों की क्षमताएं सीमित हैं।

प्रस्तावित कार्बन बाज़ार के तहत दंड के प्रावधान में एक कानूनी अनिश्चितता भी है। इस योजना की उत्पत्ति ईपीए और ईसीए दोनों में हो सकती है, इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि किस कानून के तहत दंड लगाया जाएगा और उसकी प्रक्रिया क्या होगी। इस संदर्भ में स्पष्टता आवश्यक है ताकि एक सरल, सीधी प्रक्रिया बनाई जा सके और दंडात्मक कार्रवाई का एक विश्वसनीय संकेत दिया जा सके। संभव है कि CCTS की परिभाषा स्पष्ट कर सकती है कि क्या बीईई सीधे दोषी इकाई पर दंड लगा सकती है।

स्वाभाविक रूप से, किसी भी प्रमाणपत्र का उपयोग उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य को पूरा करने के बाद तुरंत समाप्त कर दिया जाना चाहिए और वह आगे खरीद-फरोख्त के लिए उपलब्ध नहीं होना चाहिए। इसके अलावा, दोषी फर्मों के लेखा परीक्षकों द्वारा इसे एक कानूनी उल्लंघन के रूप में चिन्हित किया जाना चाहिए, ताकि इसे शेयरधारकों के ध्यान में लाया जा सके।

इसके अतिरिक्त, बीईई को बाज़ार निगरानी और दंड रिपोर्ट नियमित रूप से प्रकाशित करनी चाहिए ताकि इस बात पर विश्वास बने कि बाज़ार ठीक ढंग से काम कर रहा है। इसमें तमाम जानकारी शामिल हो; जैसे कितनी इकाइयों ने उत्सर्जन तीव्रता लक्ष्य हासिल किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र जारी किए गए, कितनी इकाइयों ने लक्ष्य हासिल नहीं किए, कितने कार्बन क्रेडिट प्रमाणपत्र खरीदने थे, और वास्तव में कितने खरीदे गए, लगाए गए दंड, वसूले गए दंड और दोषी इकाइयों के नाम वगैरह। अन्य जानकारी जैसे खरीद-फरोख्त किए गए प्रमाणपत्रों की मात्रा, कीमतें, और निरस्त किए गए प्रमाणपत्रों की संख्या इत्यादि भी प्रकाशित की जानी चाहिए ताकि भारतीय कार्बन बाज़ारों की स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी सार्वजनिक तौर पर मिल सके।

निष्कर्ष

भारत अपने निरंकुश उद्योगों के डीकार्बोनाइज़ेशन के लिए एक कार्बन बाज़ार की महत्वपूर्ण योजना बना रहा है। इसे हासिल करने के लिए CCTS को सावधानी से डिज़ाइन करने और उसके कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण व्यवस्थाओं की आवश्यकता है। संस्थागत संरचना को सुगम और मज़बूत बनाने के लिए उसे पर्याप्त संसाधनों के माध्यम से संभालने की आवश्यकता है। इसे एक सरल, प्रभावी और पारदर्शी प्रवर्तन प्रणाली का समर्थन मिलना चाहिए जो कंपनियों को योजना में भाग लेने और अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करे। उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित करने में भी सतर्कता की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये न तो बहुत ही ढीले हों और न ही बहुत ही कठोर, तथा कंपनियों को डीकार्बोनाइज़ेशन प्रौद्योगिकियों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने में भूमिका निभाएं। इसके बिना, संभावना है कि भारत के पास एक कार्बन मार्केट तो होगा, लेकिन यह न तो भारतीय उद्योगों के प्रभावी डीकार्बोनाइज़ेशन में मदद करेगा, और न ही भारतीय उद्योग उत्सर्जन कम करने के वैश्विक दबावों के चलते वैश्विक उद्योगों से मुकाबला कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

इस लेख में छपे विचार लेखक के निजी विचार हैं, एकलव्य या ग्राउंड रिपोर्ट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। 

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