जनवरी के एक सर्द दिन में झाबुआ से 4 किलोमीटर दूर डुंन्गरा धन्ना गाँव में केगू सिंघाड़िया (45) एक कमरे में पड़ी खटिया पर लेते हुए हैं. सुबह से ही उनके हाथ-पैर में तेज़ दर्द महसूस हो रहा है. यह पहली बार नहीं है जब उन्हें इस दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. केगू सिकल सेल बीमारी (sickle cell anemia) से पीड़ित हैं. कोई भी मेहनत का काम करने या तेज़ गर्मी अथवा ठण्ड होने पर उनके शरीर में तेज़ दर्द होने लगता है. यह दर्द कभी-कभी असहनीय हो जाता है. इस बीमारी ने उन्हें बुरी तरह प्रभावित किया है. केगू अब कोई भी मेहनत का काम नहीं कर सकते हैं. वह अपने या दूसरे के खेत में मज़दूरी करने में भी असमर्थ हैं.
Sickle Cell Anemia: क्या है सिकल सेल बिमारी?
यह एक तरह का क्रोनिक सिंगल जीन डिसऑर्डर है. इंसानी शरीर में पाई जाने वाली लाल रक्त कणिकाओं (red blood cells) में हिमोग्लोबिन होता है. यह एक प्रकार का प्रोटीन है जो शरीर में ऑक्सीजन को एक जगह से दूसरी जगह तक ले जाता है. लाल रक्त कणिका आम तौर पर गोल होती हैं. मगर सिकल सेल (Sickle Cell Anemia) होने पर यह मोटी और हसिये (sickle) के आकार की हो जाती हैं. इससे यह सेल जल्दी मर जाती हैं और शरीर में लाल रक्त कणिकाओं की कमी हो जाती है. इसके अलावा मोटी होने के कारण यह पतली नसों से गुज़र नहीं पाती हैं और नसों में फंसकर रह जाती हैं. इससे शरीर में खून का प्रवाह बाधित हो जाता है. चिकित्सा की भाषा में कहें तो आम तौर पर इंसानी शरीर में हिमोग्लोबीन-ए (HbA) पाया जाता है. जब यह सिकल सेल कारक हिमोग्लोबीन (HbS) से स्थानांतरित (replace) कर दिया जाता है तब व्यक्ति सिकल सेल मरीज़ या वाहक बनता है (NSCAEM, Page 4) .
सिकल सेल बीमारी के प्रकार
सिकल सेल के मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार होते हैं. चूँकि इस रोग में हिमोग्लोबीन की मुख्य भूमिका होती है अतः यह चारो प्रकार हिमोग्लोबीन की अल्फ़ा और बीटा चेन के आधार पर विभाजित किए जाते हैं.
- सिकल सेल एनीमिया (SS) - जब किसी भी बच्चे को अपने माता-पिता से एक-एक बीटा ग्लोबीन जीन (सिकल सेल जीन) मिलता है. तब वह सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित हो जाता है.
- सिकल हिमोग्लोबीन-सी डिज़ीस (SC) - इस प्रकार की सिकल सेल बिमारी से पीड़ित मरीज़ में कक्मोवेश वही लक्षण होते हैं जो सिकल सेल एनीमिया में होते हैं. मगर इसमें बीटा ग्लोबीन जीन हिमोग्लोबीन-सी और हिमोग्लोबीन-एस को उत्पादित करता है. इसमें ब्लड काउंट अपेक्षाकृत अधिक होता है.
- सिकल बीटा प्लस थेलेसीमिया (SB) - इसके लक्षण भी अमूमन सिकल सेल एनीमिया की तरह ही होते हैं. मगर इसमें पीड़ित को कुछ अंतराल में खून चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती है.
- सिकल हिमोग्लोबीन डी बिमारी (SD) - इस तरह के मरीजों में हिमोग्लोबीन-डी जो बीटा ग्लोबीन जीन का एक प्रकार है, सिकल हिमोग्लोबीन जीन को प्रभावित (interact) करता है. इसमें मरीज़ शरीर में तीव्र दर्द महसूस करता है.
- सिकल हिमोग्लोबीन ओ बिमारी (SO) - सिकल हिमोग्लोबीन-डी बिमारी की तरह ही इसमें हिमोग्लोबीन-ओ जीन सिकल हिमोग्लोबीन को प्रभावित (interact) करता है.
केगू का बचपन बाकी बच्चों की तरह आम नहीं था. वह खेलते हुए जल्दी थक जाते और बाद में बीमार हो जाते थे. मगर उन्हें अपने बचपन में इस बिमारी का पता नहीं चला. शादी के बाद वह पलायन करके गुजरात चले गए. वहां सुरेन्द्रनगर नामक जगह पर वह ट्राली में रेत भरने का काम कर रहे थे. तभी केगू का शरीर अकड़ने लग गया. तबियत जब ज़्यादा बिगड़ी तो उनकी पत्नी सुनीता उन्हें अस्पताल ले गईं. यहाँ हुए टेस्ट से उन्हें पता चला कि वह सिकल सेल के मरीज़ हैं.
भारत में सिकल सेल बिमारी
भारत में सिकल सेल (Sickle Cell Anemia) का पहला मरीज़ 1952 में तमिलनाडु में मिला था. साल 2016 से 2018 के बीच के आँकड़ों के अनुसार देशभर में 1 करोड़ 13 लाख 83 हज़ार 664 लोगों की स्क्रीनिंग की गई थी. इसमें से 9 लाख 96 हज़ार 368 लोग सिकल सेल पॉजिटिव पाए गए थे. लेकिन एक अनुमान के मुताबिक़ बीते साल तक मरीजों की संख्या 14 लाख से भी ज़्यादा हो गई थी.
भारत सरकार द्वारा 1 जुलाई 2023 को मध्य प्रदेश के शहडोल ज़िले से राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया (Sickle Cell Anemia) उन्मूलन मिशन लॉन्च किया गया था. इस मिशन के तहत अब तक 1 करोड़ 48 लाख 58 हज़ार 584 लोगों की स्क्रीनिंग की गई है. इनमें से 5 लाख 34 हज़ार 923 सिकल सेल वाहक और 1 लाख 672 सिकल सेल रोगी चिन्हित किए गए हैं. हालाँकि सिकल सेल के कितने मरीज़ आदिवासी इलाके के हैं इसका अलग से कोई भी डाटा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है. मगर एक अनुमान के मुताबिक़ आदिवासी समुदाय में पैदा होने वाला प्रत्येक 86 में से एक बच्चा इससे पीड़ित है.
आर्थिक परेशानियों को गहराता सिकल सेल (Sickle Cell Anemia)
केगू जैसे आदिवासी परिवार के लिए यह रोग किसी अभिशाप की तरह है. यह बिमारी उन्हें आर्थिक और मानसिक दोनों ही दबाव देती है. उनकी पत्नी सुनीता (40) बताती हैं कि साल 2006 में उन्होंने एक बच्ची को जन्म दिया था मगर जन्म के साथ ही उसमें हिमोग्लोबिन कम था. इसी वजह से वह केवल 19 महीने ही जी सकी. अभी उनके 4 बच्चे हैं. इनमें से 2 बच्चों को यह बिमारी है. सुनीता कहती हैं कि वह बाकी 2 बच्चों का टेस्ट नहीं करवाना चाहतीं क्योंकि उन्हें डर है कि ‘अगर उन बच्चों को भी यह बिमारी निकली तो क्या करेंगे?’ वहीँ दूसरी ओर केगू को उनकी बिमारी के चलते अब कोई भी काम नही देता. केगू के अनुसार सब कहते हैं,
“क्या पता तू कब बीमार हो जाए?”
घर की आर्थिक परिस्थिति को देखते हुए सुनीता ने कुछ साल पहले सिलाई सीखी. इसके बाद अपनी बचत और कुछ क़र्ज़ लेकर उन्होंने सिलाई की मशीन ख़रीदी. अब वह दिन में 2 लहंगे बनाती हैं. एक लहँगे की कीमत 250 रूपए है. इससे महीने भर में होने वाली कमाई से ही वह घर चलाती हैं. मगर उनके अनुसार इससे जो भी पैसा वह बचा पाती हैं वह सब एक बार बीमार होने पर खप जाता है. दवाइयों के खर्चे के आगे बचत छोटी पड़ जाती है और केगू के परिवार को हर बार 10 प्रतिशत ब्याज़ पर क़र्ज़ लेना पड़ जाता है.
अस्पताल का खर्च
केगू के परिवार पर अभी 2 लाख रूपए का क़र्ज़ है. हर महीने 2 हज़ार 900 रूपए उन्हें ब्याज़ में देने पड़ते हैं. यह आर्थिक बोझ हर बार और भी बढ़ जाता है. उनकी छोटी बेटी रिसीना (12) को भी सिकल सेल (Sickle Cell Anemia) है. बीते अक्टूबर को वह बीमार हो गई. इस दौरान उन्हें क़रीब 10 हज़ार खर्च करने पड़े. केगू बताते हैं,
“इसका बी पॉजिटिव ब्लड है. वह यहाँ आसानी से मिलता नहीं है. हर बार अस्पताल वाले हमें बोल देते हैं कि हमें ही ब्लड का इंतज़ाम करना पड़ेगा.”
मगर खुद सिकल सेल के मरीज़ केगू के लिए भाग-दौड़ करके यह इंतज़ाम करना बेहद कठिन होता है. वह इस दौरान अपने रिश्तेदारों के व्यवहार से भी काफी निराश नज़र आते हैं. वह बताते हैं,
“रिश्तेदार हमारा मज़ाक उड़ाते हैं. यदि उनसे मदद माँगे भी तो वह हमारे साथ हिंसा करते हैं.”
वह बताते हैं कि खून देने के लिए जो भी आता है वह 2 हज़ार से 25 सौ रूपए की मांग करता है. हर बार इस पैसे का इंतेज़ाम उनके लिए मुश्किल है.
ज़िले के सरकारी अस्पताल में खून की उपलब्धता के बारे में बात करते हुए ज़िला सिकल सेल नोडल अधिकारी डॉ. संदीप चोपड़ा कहते हैं कि मरीज़ को जितना संभव होता है खून उपलब्ध करवाया जाता है. हालाँकि वह इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि ज़रूरत को पूरा करने में थोड़ा दिक्कत जाती है.
“हमने अपने उच्च अधिकारियों से इस बारे में बात रखी थी जिसके बाद वह हमें इंदौर के मेडिकल कॉलेज से खून उपलब्ध करवाते हैं.” वह कहते हैं.
ग़रीबी का बोझ
3 साल की लिली भूरिया के पिता दिनेश पेशे से मजदूर हैं. उन्हें पलायन करके अक्सर गुजरात जाना पड़ता है. मगर इस बार उन्हें अपना काम छोड़कर वापस आना पड़ा. लिली की तबियत बिगड़ने पर उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ गया. अपने पिता की गोद में बैठी लिली दर्द के चलते रोने लगती है. रोते हुए जब थक जाती है तो चुप होकर पथराई आँखों से आस-पास देखती रहती है. खून की कमी के चलते उसका शरीर सफ़ेद हो रहा है. दिनेश बताते हैं,
“हम दाहोद में मज़दूरी करते हैं. वहां शुरुआत में 2 महीने में एक बार खून चढ़ाना पड़ता था. बाद में यह 30 दिन में एक बार हुआ अब इस महीने 2 बार खून चढ़ चुका है.”
गौरतलब है कि 15 दिसंबर 2023 को संसद में दिए एक जवाब में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग ने बताया कि देश भर में करीब 14.6 मिलियन यूनिट खून की ज़रूरत है. इसे पूरा करने के लिए देश भर में 4 हज़ार 153 लाइसेंस्ड ब्लड बैंक हैं. इसमें से 172 ब्लड बैंक मध्य प्रदेश में हैं जिनमें से 73 बैंक सरकारी हैं.
लिली जैसे कम उम्र के मरीज़ों के लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें अधिक मात्र में प्रोटीन और एनर्जी सप्लीमेंट दिए जाए. एक शोध के अनुसार सिकल सेल के मरीज़ के लिए अधिक मात्रा में प्रोटीन और एल अर्जीनाइन (L-arginine) जो एक प्रकार का अमीनो एसिड है, का उपभोग करना फायदेमंद होता है. इसके प्रमुख स्त्रोत मछली, माँस, सोया, साबुत आनाज और डेयरी प्रोडक्ट होते हैं. मगर दिनेश कहते हैं कि महँगाई के चलते वह कितना भी कमा लें अपनी बच्ची को हरी सब्ज़ी और फल नहीं खिला पाते हैं. उनकी पत्नी बताती हैं कि पलायन में बाहर जाने पर खाना खिलाना भी मुश्किल पड़ता है. यही हाल केगू के परिवार का भी है. उनकी पत्नी सुनीता कहती हैं कि महीने में इतनी कमी ही नहीं होती कि वह हरी सब्ज़ी या उपर्युक्त कोई भी आहार ख़रीद सकें.
क्या रोज़गार के कोई वैकल्पिक साधन हैं?
झाबुआ एक ऐसा आदिवासी क्षेत्र है जहाँ बारह महीने खेती करना यहाँ की अधिकतर आबादी के लिए असंभव है. यही कारण है कि ये आदिवासी पलायन करने पर मजबूर हैं. मगर केगू जैसे सिकल सेल से पीड़ित अभिभावक या दिनेश जैसे ऐसे अभिभावक जिसकी बच्ची को यह रोग हो, के लिए पलायन पर मज़दूरी करना एक दुर्गम कार्य है. केगू खुद शारीरिक परिश्रम वाला काम नहीं कर सकते हैं. वहीँ अपनी बच्ची को पीछे छोड़कर मज़दूरी में जाना न सिर्फ दिनेश जैसे पिता के लिए भावनात्मक तौर पर कठिन है बल्कि इससे कम संसाधन में बच्ची की देखभाल का सारा बोझ माँ पर आ जाता है.
मगर यह समस्या कोई 2 या 3 साल में नहीं उपजी है. ऐसे में सवाल यह है कि राज्य ने इन लोगों के लिए रोज़गार के कोई वैकल्पिक साधन खोजे हैं? इन मरीजों और इनके परिजनों से बात करते हुए इसका जवाब न में ही मिलता है. सार्वजनिक स्थानों पर भी ऐसा कोई सरकारी दस्तावेज़ मौजूद नहीं है जो रोज़गार के इस वैकल्पिक साधन का इंतज़ाम करता हुआ दिखता हो.
इस बारे में और जानने के लिए हमने स्थानीय कलेक्टर से संपर्क करने की कोशिश की है. उनका उत्तर मिलने पर खबर अपडेट कर दी जाएगी. हालाँकि स्थानीय संगठन जयस (जय आदिवासी युवा शक्ति) के ज़िला अध्यक्ष रमेश कटारा इस बारे में पूछने पर कहते हैं,
“यहाँ तो मनरेगा के तहत 100 दिन का रोजगार तक नहीं मिलता कोई अन्य रोज़गार सरकार कहाँ से ही देगी.”
गौरतलब है कि झाबुआ ज़िले में कुल 511 परिवारों को ही 100 दिनों का रोज़गार (6 फ़रवरी 2023 तक) मिला है. वहीँ 101 से 150 दिनों के लिए यह संख्या घटकर 87 हो जाती है.
नोट - यह स्टोरी विकास संवाद द्वारा समर्थित संविधान संवाद फ़ेलोशिप के अंतर्गत की गई है.
Keep Reading
बुरहानपुर में जागृत आदिवासी दलित संगठन (JADS) के कार्यकर्ता नितिन की गिरफ्तारी पर उठते सवाल
महिलाओं के विकास के लिए शिक्षा क्यों है ज़रुरी?
अभिव्यक्ति: लड़कियों के प्रति अन्यायपूर्ण विचार
महिलाओं के विकास के लिए शिक्षा क्यों है ज़रुरी?
अल नीनों का डेंगू कनेक्शन, मध्यप्रदेश में बढ़ रहे हैं मामले
'व्हीट ब्लास्ट' क्या है, जिससे विश्व खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है?
Follow Ground Report for Environmental News From India. Connect with us on Facebook, Twitter, Koo App, Instagram, Whatsapp and YouTube. Write us on [email protected] and subscribe our free newsletter.
Don’t forget to check out our climate glossary, it helps in learning difficult environmental terms in simple language.