राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने रविवार को तीन विवादास्पद कृषि बिलों को मंजूरी दे दी। वहीं विपक्षी दलों ने सरकार पर बिलों को जल्दबाजी में पास कर संसदीय प्रक्रिया का उल्लंघन करने का और आगे के विचार-विमर्श के लिए संसदीय समिति को बिल भेजने की मांग को नहीं सुनें का आरोप लगाया। साथ ही आठ विपक्षी सदस्यों को निलंबित कर दिया, जिन्होंने सोमवार रात संसद के बाहर धरना दिया था।
लेकिन राजनीतिक फ़िराक से परे, विधयेक ने भी राय को विभाजित किया है। जबकि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इन बिलों को भारतीय कृषि के लिए एक “वाटरशेड पल” कहा है, वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों ने उन्हें “किसान विरोधी” कहा है और उनकी तुलना “डेथ वारंट” से की है। नाराज और चिंतित किसान समूह उन्हें अनुचित और शोषक के रूप में देखते हैं। प्रो-रिफॉर्म अर्थशास्त्रियों ने इस कदम को स्वागत किया है, लेकिन उनका कहना है कि यह पीसमियल दृष्टिकोण है जो बहुत कुछ करने की संभावना नहीं रखता।
यह तीन बिल किस लिए हैं?
यह सुधार कृषि उपज की बिक्री, मूल्य निर्धारण और भंडारण के नियमों से छुटकारा देगा। यह नियम भारत के किसानों को दशकों तक मुक्त बाजार में व्यापार करने से रोका है। लेकिन खाद्य व्यापारी अब सीधे किसानों से खरीद सकते हैं। यह निजी खरीदारों को भविष्य की बिक्री के लिए आवश्यक वस्तुओं को जमा करने की अनुमति देते हैं, जो केवल सरकारी-अधिकृत एजेंट पहले कर सकते थे। सबसे बड़ा बदलाव यह है कि किसानों अपनी उपज सीधे प्राइवेट कंपनीयों को बेच सकते हैं, जैसे कृषि व्यवसायों, सुपरमार्केट चेन और ऑनलाइन ग्रॉसर्स। अधिकांश भारतीय किसान अपनी उपज का अधिकांश हिस्सा सरकार द्वारा नियंत्रित होलसेल बाजारों या मंडियों में सुनिश्चित कीमतों पर बेचते थे।
पहले यह बाजार किसानों के द्वारा बनाई गई समितियों, भूमि-मालिकों और व्यापारियों या कमीशन एजेंटों द्वारा चलती थीजो ब्रोकेरिग सेल्स, भंडारण, परिवहन और यहां तक वित्तपोषण सौदों के लिए मंडल मैन के रूप में काम करते थे। यह सुधार अब किसानों को “मंडी प्रणाली” के बाहर बेचने का विकल्प देते हैं
मामला क्या है?
मुद्दा यह है कि यह स्पष्ट नहीं है कि यह वास्त्विक में कैसे चलेगा। किसान पहले से ही कई राज्यों में निजी कंपनियों को बेच सकते हैं, लेकिन यह राष्ट्रीय रूपरेखा प्रदान करता है।अगर वह एक निजी खरीदार द्वारा दी गई कीमत से संतुष्ट नहीं हैं, तो वे मंडी में वापस नहीं लौट सकते हैं या बातचीत के दौरान सौदेबाजी नहीं कर सकते हैं। जिसके कारण अंत में उन्हें होलसेल बाजार और सुनिश्चित कीमतों में बेचना पड़ेग और साथ ही उनके पास बैक-अप विकल्प भी नहीं रहेगा। ।
पंजाब के उत्तरी राज्य के एक किसान मुलतान सिंह राणा ने कहा, “सबसे पहले, किसान इन निजी कंपनियों की ओर आकर्षित होंगे, जो पैदावार के लिए बेहतर कीमत की पेशकश करेंगे। सरकारी मंडियां इस बीच पैकअप करेंगी और कुछ सालों के बाद ये खिलाड़ी किसानों का शोषण करना शुरू कर देंगे। यही कारण है कि हम डरते हैं”। वही सरकार ने कहा है कि मंडी प्रणाली जारी रहेगी, और वह न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को वापस नहीं हटाएंगे, लेकिन किसानों को सरकार की बात पर भरोसा नहीं है। दूसरे किसान सुदेव सिंह कोकरी ने बीबीसी को बताया कि “यह छोटे और सीमांत किसानों के लिए मौत का वारंट है। इसका उद्देश्य कृषि और बाजार को बड़े कॉर्पोरेट्स को सौंपकर उन्हें नष्ट करना है। वे हमारी जमीन छीनना चाहते हैं। लेकिन हम उन्हें ऐसा करने नहीं देंगे। विरोध प्रदर्शन पंजाब और पड़ोसी राज्य हरियाणा में सबसे ज्यादा है, जहां मंडी प्रणाली मजबूत है और उत्पादकता अधिक है।
अर्थशास्त्री अजीत रानाडे कहते हैं, “किसान को मंडी प्रणाली के बाहर किसी को भी बेचने की आज़ादी देना, किसान को विनियंत्रण करने का कदम है। लेकिन निजी ट्रेडिंग सिस्टम के साथ सह-अस्तित्व के लिए मंडी प्रणाली होना आवश्यक है। शायद सरकार को एक लिखित कानून के साथ आने की आवश्यकता है कि वे एमएसपी या मंडी प्रणाली को वापस नहीं लेंगे।” भारत में अभी भी कृषि भूमि की बिक्री, उपयोग और उच्च सब्सिडी के लिए कड़े कानून हैं जो किसानों को बाजार की ताकतों से बचाते हैं।
क्यों इसके कारण राजनीतिक स्तर पर प्रभाव पड़ रहा है?
किसान लंबे समय से पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण मतदान खंड रहे हैं और इससे जुड़े विवाद ने निश्चित रूप से पार्टियों को विभाजित किया है। दरअसल विपक्ष के बार-बार अनुरोध के बावजूद, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने विधेयक पर बहस को अगले दिन तक बढ़ाने, या इसे एक विशेष समिति के पास भेजने से इनकार कर दिया, जहां सदस्य इस पर चर्चा कर सकते थे।
यहां तक कि महामारी फैलने के बाद भी विपक्षी सांसदों ने सदन तोड़फोड़ की, माइक्रोफोन फेंक दिए, कागजात फाड़ दिए थे। सदन के उपाध्यक्ष जो सरकार का समर्थन करने वाली पार्टी के सांसद हैं, उन्होंने वोट के साथ आगे बढ़ने का विकल्प चुना। इसके अलावा इस विधेयक को पास करने के लिए उन्होंने भौतिक मत के बजाय एक वॉइस वोट किया। विपक्षी सांसदों ने आरोप लगाया कि ना केवल हंगामा हुआ बल्कि स्पष्ट भी नहीं किया गया। विरोध के दिन यह निर्धारित करना मुश्किल था कि भाजपा के पास बिल पास करने के लिए पर्याप्त वोट थे या नहीं।
कम उत्पादकता से लेकर खंडित भूस्खलन, भंडारण बुनियादी ढांचे की कमी और उच्च ऋणग्रस्तता से लेकर भारत में कृषि संकट के कई कारण हैं। कृषि क्षेत्रों में लंबे समय से सुधार की सख्त जरूरत है, यह क्षेत्र भारत की आधी आबादी को रोजगार देती है। लेकिन नए और विवादास्पद बिल किसानों की परेशानियों के लिए रामबाण नहीं हैं। एक दृष्टिकोण यह है कि इससे कृषि की आय में सुधार होगा, निवेश और प्रौद्योगिकी आकर्षित होगी और उत्पादकता बढ़ेगी। यह किसान को बिचौलिए के नियंत्रण से भी मुक्त करेगा जो प्रभावी रूप से होलसेल बाजार चलाते हैं। लेकिन इन परिवर्तनों के साथ वह अपना कमीशन खो देंगे।
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