ऐसे वक़्त में जबकि देश में रोज़गार के अवसर कम होते जा रहे हैं, बड़ी बड़ी कंपनियां कर्मचारियों की छटनी कर रही हैं, रोज़गार के अवसर लगातार सीमित होते जा रहे हैं, ऐसे वक़्त में भी देश के ग्रामीण क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में रोज़गार के अवसर उपलब्ध हैं। वास्तव में देश की एक बड़ी आबादी कृषि तथा कृषि आधारित रोज़गार पर निर्भर है। जिसमें पशुपालन और उससे जुड़े अन्य रोज़गार भी शामिल है। इन्हीं में डेयरी उद्योग भी जुड़ा है। जिससे युवा किसानों को नए रोज़गार भी मिल रहे हैं। प्रत्येक गांव और कस्बों में डेयरी सेंटरों की संख्या बढ़ रही है। यह संभव हुआ है दुग्ध उत्पादन में आत्मनिर्भर बनने से। एक समय था जब श्वेत क्रांति के लिए पूरी दुनिया में भारत को जाना जाता था। ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों द्वारा ज़्यादा से ज़्यादा गाय, भैंस और बकरी पालने की वजह से दूध का कारोबार फल फूल रहा था। लेकिन बदलते परिदृश्य में शहरी आबादी के साथ साथ ग्रामीण जनता भी इस व्यवसाय से दूर होती जा रही है। शहर में जहां जानवरों के चारे की दिक्कत है, तो वहीं गांव में समुचित सुविधा और प्रशिक्षण के अभाव में पशुपालकों की संख्या घट रही है।
हालांकि सालों भर रोज़गार देने वाले इस काम को बढ़ावा देने के लिए केंद्र से लेकर विभिन्न राज्य सरकारें अनेक योजनाएं संचालित कर रही हैं। बिहार में पशुपालन को अधिक से अधिक रोज़गार के रूप में उपलब्ध कराने के लिए समग्र गव्य विकास योजना भी चलाई जा रही है। इसके तहत पशुपालकों को प्रशिक्षण, ऋण और अनुदान भी दिए जाने का प्रावधान है। बिहार सरकार डेयरी उद्योग को बढ़ावा देने के लिए समग्र गव्य विकास योजना के तहत 50 से 75 प्रतिशत तक सरकारी अनुदान देती है। इस योजना के तहत अलग अलग दुधारू मवेशियों की संख्या के अनुसार अनुदान की व्यवस्था की गई है। इसमें सामान्य जाति के लोगों को 50 प्रतिशत जबकि अनुसूचित जाति के लोगों को 75 प्रतिशत अनुदान का लाभ दिया जाता है।
देश में दूध के नाम पर आम लोगों की सेहत की चिंता किए बिना यूरिया से दूध बनाने का खुलेआम काला धंधा भी चल रहा है। सरकारी हुक्मरानों की उदासीनता व भ्रष्ट रवैये के कारण लाखों लोगों का स्वास्थ्य राम भरोसे है। यह बात जरूर है कि शहरी क्षेत्रों में खटालों के जरिये दूध का उत्पादन हो रहा है, जो रोजगार व सेहत दोनों के लिए ठोस कदम माना जा सकता है। इससे इतर देहाती इलाकों में भी दुधारू पशु रोज़गार और आय का एक सशक्त माध्यम है, परंतु उचित प्रशिक्षण व रोगोपचार की जानकारी के अभाव में इन पशुपालकों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है, जो चिंता का सबब है। हालांकि अभी भी गरीब कृषकों के लिए पशुपालन वरदान साबित हो रहा है। छोटे-छोटे पशुपालक दूध, दही, घी व मक्खन बेचकर न केवल आय का अच्छा स्रोत जुटा रहे हैं बल्कि अपने बच्चों को भी अच्छी शिक्षा दिलाकर देश-दुनिया के लिए मिसाल कायम कर रहे हैं।
इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिला स्थित साहेबगंज प्रखण्ड के एक छोटा सा गाँव हुस्सेपुर महुआनी है। जहां दर्जनों गरीब परिवार कृषि के साथ साथ पशुपालन का व्यवसाय अपनाकर आर्थिक रूप से सशक्त हो रहे हैं। इन्हीं में एक बेहद गरीब किसान मुन्नी राय भी हैं। एक समय था जब उनका पारिवारिक जीवन बहुत ही कष्टमय बीतता था। लेकिन आज पशुपालन की बदौलत उन्होंने अपने बेटे को प्रतिष्ठित ‘आइआइटी’ से पढाई पूरी करवायी है। मुन्नी राय स्वयं अशिक्षित हैं लेकिन अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए पूरे लगन से गाय व भैंस पालने में लगे हैं। मुन्नी राय के पास इतनी कम ज़मीन है कि उससे खेती करके परिवार का भरण-पोषण और शिक्षा का काम मुश्किल हो गया था। लेकिन जब इंसान के पास हिम्मत और साहस हो तो कुछ भी संभव हो सकता है। मुन्नी राय ने खेती के साथ साथ पशुपालन व्यवसाय भी शुरू किया। गाय और भैंस का दूध को बेचकर उन्हें अतिरिक्त आय प्राप्त होने लगी। जिससे आर्थिक स्थिती में पहले की तुलना में काफी सुधार आने लगा। उनकी देखा-देखी गांव के दर्जनों गरीब किसानों ने पशुपालन को अपनी जीविका का आधार बनाया है। धर्मनाथ सहनी, लाल बिहारी राय, संजय राय, जनक राय, प्रभु राय, मनक राय, फूलदेव राय, राम अशीष राय, रामाधार राय, रधुवर यादव, रवीन्द्र राय आदि ऐसे दर्जनों गरीब किसान हैं, जिनकी आय का मुख्य स्रोत पशुपालन बन चुका है।
हालांकि पशुपालन व्यवसाय में कई कठिनाइयां भी हैं। इस संबंध में एक पशुपालक आशीष राय कहते हैं कि स्थानीय ग्रामीण बैंक से समय पर किसानों को क्रेडिट कार्ड नहीं मिलता है। जिससे गांव के साहूकार से 5 प्रतिशत मासिक ब्याज पर पैसे लेकर पशुओं का दाना-साना तथा दवा करनी पड़ती है। केसीसी के नाम पर आवंटित राशि का 10 प्रतिशत रिश्वत सरकारी बाबुओं को देनी पड़ती है। ऐसे में महाजन (साहूकार) से ब्याज पर पैसे लेकर काम चलाना अच्छा है। दूसरी ओर हुस्सेपुर परनी छपड़ा गांव के सहिन्द्र बारी कहते हैं कि पशुओं के टीकाकरण और बीमारियों का निदान सरकारी स्तर पर नहीं मिलने के कारण अधिकांश पशुओं की असमय मृत्यु हो जाती है। पशुओं के रोग से अनभिज्ञ पशुपालक भारी-भरकम पूंजी गंवा देते हैं इसलिए लोग पशुपालन से मुंह मोड़ने लगते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि सरकारी स्तर पर चलाई जा रही योजना, रोगोपचार और प्रशिक्षण आदि क्या केवल कागज पर खानापूर्ति के लिए है?
हालांकि पारु ब्लॉक के पशु चिकित्सक डाॅ. अरुण कुमार का कहना है कि सरकारी स्तर से मवेशियों को सुरक्षित और स्वस्थ्य रखने के लिए टीकाकरण किया जाता है। खासकर मवेशी को खसरा, डकहाँ, जैसी बीमारियों से ज्यादा परेशानी होती है। इसके लिए समय-समय पर सरकार पशु गणना करवा रही है। साथ ही पशुओं के टैग जिसे पशु आधार कार्ड भी कहा जाता है, पशुपालकों को उपलब्ध कराई जाती है, साथ ही पशुओं के लिए प्रखण्ड स्तर पर दवा भी उपल्बध है। लेकिन पशुपालक इन्दु देवी, धर्मशीला देवी, राकेश यादव ,संजय यादव आदि कहते हैं कि मवेशी के लिए जो भी दवाएं आती हैं, वह सभी पशुपालकों को नही मिलती है।
वास्तव में सरकार द्वारा चलाई जा रही अनेकों योजनाएं ऐसी हैं, जिससे गरीबों और किसानों के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है, लेकिन विडंबना यह है कि इनमें से अधिकतर योजनाएं ज़मीनी स्तर की तुलना में कागज पर अधिक काम करते हैं। यही कारण है कि मुन्नी राय जैसे लाखों पशुपालक सरकारी लाभ नहीं ले पाते हैं और उन्हें पशुधन को बचाने के लिए साहूकार से कर्ज लेना पड़ता है। यदि रोज़गार के लिए पशुधन को सशक्त माध्यम बनाना है तो पहले पशुपालकों को उचित प्रशिक्षण समेत समुचित जानकारियां उपलब्ध करवानी होगी। उन्हें टीकाकरण, रोगोपचार, संरक्षण और संवर्द्धन के लिए प्रशिक्षित करना ही होना होगा।
यह आलेख मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से फूलदेव पटेल ने चरखा फीचर के लिए लिखा है
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