Mahua and Tribals | मध्य प्रदेश सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले आदिवासियों का जीवन वनों और वनोत्पादों पर निर्भर है. महुआ ऐसे ही महत्वपूर्ण वनोत्पाद में से एक है. महुआ या मधुका लौंगीफोलिया (Madhuca Longifolia) गोंड, कोरकू, मुण्डा और संथाल आदिवासियों के लिए आजीविका का साधन माना जाता है. अगर गोंड और कोरकू समुदाय की बात करें तो यह पेड़ अपने फूलों और फल के साथ न सिर्फ उनके जीवन का आर्थिक पक्ष देखने का लेंस है बल्कि यह उनके लिए सांस्कृतिक रूप से भी महत्त्व रखता है.
महुआ या मधुका लौंगीफ़ोलिया
अगर वन विभाग की भाषा में कहें तो महुआ एक गैर-टिम्बर पेड़ है. यानि इससे इमारती लकड़ी नहीं निकलती है. मध्य प्रदेश वन सेवा से सेवानिवृत्त हो चुके रणवीर सिंह भदौरिया बताते हैं,
"महुआ फल देने वाला पेड़ है इसलिए इसे काटना पूर्णतः प्रतिबंधित है. यूँ तो महुआ अपने पास जंगल में उग जाता है. मगर फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट भी नर्सरी में इसके पेड़ लगाकर किसानों को उनके खेतों में इन्हें लगाने के लिए देता है."
महुए का फल (गुल्ली), फूल और बीज से निकलने वाला तेल तीनों ही महत्वपूर्ण हैं. महुआ एक जंगली पेड़ है यह पथरीली लाल मिट्टी, खारी मिट्टी और सोडिक सौईल में भी खिलता है. यह 12 सौ मीटर से लेकर हिमालयी इलाकों में 45 सौ मीटर (altitude) में भी पाया जाता है. अगर भारत में इसके उत्पादन के मुख्य स्थानों की बात करें तो यह मध्य प्रदेश के अलावा झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार में भी पाया जाता है.
महुआ का आर्थिक पक्ष
महुआ का फूल (corolla) शुगर, विटामिन और मिनरल्स युक्त होता है. इसके फूल और फल (गुल्ली) के शुगर युक्त होने के कारण इसे फर्मेंट करके शराब बनाई जाती है. साल 2021 में मध्य प्रदेश सरकार ने इस शराब को ‘हैरिटेज लिकर’ घोषित कर दिया. इसके बाद यह सरकारी बार में भी बिक रही है. अलीराजपुर के कट्ठीवाड़ा और डिंडोरी के भाकामल में स्वयं सहायता समूह द्वारा इसका व्यापार किया जा रहा है. हालाँकि प्रदेश के बाकी हिस्सों में इस शराब को आदिवासी समुदाय (Mahua and Tribals) खुद के सेवन के लिए बनाते हैं. इसके महत्त्व को गोंडी भाषा की एक कहावत से समझें तो उस कहावत के अनुसार स्वर्ग वहां है जहाँ महुए के पेड़ हैं और नर्क वहां है जहाँ शराब बनाने के लिए कोई भी महुए का पेड़ नहीं है.
मप्र राज्य लघु वनोपज संघ के मुताबिक, पिछले साल राज्य में करीब 32 हजार 356 क्विंटल महुआ पैदा हुआ था. वहीँ केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय के मुताबिक महुआ बीज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 29 रुपये प्रति किलोग्राम और महुआ फूल के लिए यह 30 रुपये प्रति किलोग्राम है. इसके अलावा मध्य प्रदेश के हरदा ज़िला में आदिवासी समुदाय के बीच काम करके वाली नेहा उन्हाले कहती हैं कि
"आदिवासियों द्वारा महुआ के लड्डू और अन्य खाद्य सामग्री भी बनाई जा रही हैं. राज्य सरकारों द्वारा इसका जैम, जैली, और बिस्किट जैसी चीज़ें भी बनवाई जा रही हैं. "
महुए का तेल
महुआ के बीज से तेल निकाला जाता है. इससे निकलने वाले तेल की मात्रा तिलहन फसलों के बीज से निकलने वाले तेल की मात्र से भी अधिक होती है. इस तेल का उपयोग खाद्यान पदार्थों में और वेजिटेबल ऑइल बनाने में किया जाता है. इस तेल में अनसौचुरेटेड फैटी एसिड होता है जिसका उपभोग ह्रदय रोग के मरीजों के लिए फायदेमंद होता है. (Mahua and Tribals) आदिवासियों के स्वसहायता समूह द्वारा महुए के बीज अन्य बड़े औद्योगिक संस्थानों को दिए जाते हैं. यह संस्थान इनमें से तेल निकालने का काम करते हैं. उत्तर प्रदेश की इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी (ITDA) द्वारा एक प्राइवेट कम्पनी के साथ मिलकर 10 लाख रूपए की लागत से एक यूनिट बनाई गई है. आईटीडीए के अनुसार वह इसे और बड़े पैमाने पर विस्तार देने वाले हैं.
Mahua and Tribals | बदलती जलवायु : महुए पर संकट
बीते कुछ सालों में महुए के उत्पादन में बदलाव आया है. जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश और अन्य मौसम अनियमित हो गए हैं. एक अनुमान के मुताबिक 21वीं सदी के दौरान भारत का तापमान 2.33 से 4.78 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है. इसका असर भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरह से होगा. मसलन भारत के कुछ हिस्सों में सूखा जबकि कुछ हिस्सों में अत्यधिक बारिश हो सकती है. पूर्व में उल्लेखित एक शोध के अनुसार इस सदी के अंत तक भारत में बारिश में 15 से 40 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी होगी.
बारिश का अनियमित होना अभी से ही देखा जा सकता है. नेहा बारिश की इस अनियमितता के चलते महुए के फूल पर होने वाले असर के बारे में बताते हुए कहती हैं,
"बादल होने पर महुए का फूल 'मेच्योर' नहीं हो पाता है. जिससे वह गिरता नहीं है. "
बैतूल ज़िले के बंजारी ढाल गाँव के रहने वाले राम जी ठाकरे यूँ तो पेशे से शिक्षक हैं. मगर वह महुए का व्यापार भी करते हैं. उनके खेत में 2 महुए के पेड़ हैं जिनसे गिरने वाले महुए के फूल को इकठ्ठा कर वह बाज़ार में बेचते हैं.
मौसम के अनियमित बदलाव से महुए पर पड़ने वाले प्रभाव को चिन्हित करते हुए वह कहते हैं कि मानसून के सीज़न के अलावा भी आसमान में बादल घिर आते हैं इससे महुए का फूल सही से पक नहीं पाता है और महुए की आवक कम हो जाती है. वह कहते हैं,
“जिस पेड़ से हमने उम्मीद रहती है कि इससे 100 किलो महुआ गिरेगा उससे केवल 20 से 25 किलो ही प्राप्त हो पाता है.”
बीते साल उन्हें 2 क्विंटल महुए के उत्पादन की उम्मीद थी मगर बादल और अनियमित बारिश के कारण केवल 30 किलो महुआ ही प्राप्त हुआ.
इसके अलावा महुआ की फ़ीनोलॉजी (phenology) पर भी जलवायु परिवर्तन का असर पड़ा है. जो महुआ मार्च के मध्य में झड़ता था वह अब मध्य फ़रवरी में खिलने और झड़ने लगा है. शोध के अनुसार महुआ की फ़ीनोलॉजी में हुए इस बदलाव के चलते इसके उत्पादन में 25 प्रतिशत तक गिरावट आई है.
एक तरफ जहाँ सरकार महुआ इकठ्ठा करने वाली जनजातियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के ज़रिए मदद कर रही है वहीँ दूसरी ओर वह कटते हुए जंगलों को बचाने में नाकामयाब भी रही है. ज़ाहिर है इससे भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ लड़ाई में कई कदम पीछे चला जा रहा है. ऐसे में महुए का आर्थिक पक्ष जितना महत्वपूर्ण है उतना ही यह बात भी कि वनों को बचाना उन वनोपज को बचाना भी है जिन पर इन आदिवासी समुदाय की आजीविका निर्भर है.
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