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यूएनडीपी की रिपोर्ट के हिसाब से पलायन की वजह से बुंदेलखंड में बच्चों की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित होती है, उन्हें सही मार्गदर्शन और देखरेख में कमी का सामना करना पड़ता है। Photograph: (Manvendra Singh Yadav/Ground Report)
मध्य प्रदेश की सीमा में बुंदेलखंड क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला टीकमगढ़ जिला। अप्रैल की दोपहरी की तपिश के बाद शाम का समय हो चला है। जिले के बाबाखेड़ा गांव के पास एक ईंट भट्टे में कुछ बच्चे धूल के बीच खेल रहे हैं। एक जगह कुछ ईंट ऐसे जमाई गई हैं कि वो किसी मोटी सी दीवार की तरह लग रही है। इसके आस-पास गृहस्थी के कुछ चिह्न दिखाई देते हैं। एक मिट्टी का चूल्हा है जिसके किनारे कुछ गिनती के बर्तन रखे हुए हैं। चूल्हे के ठीक सामने उसमें झोंकी जाने वाली लकड़ियों का ढेर है। यहीं कुछ कपड़े और कंबल लटके हुए हैं।
यह ईंट भट्टा देवेंद्र सहारिया के माता-पिता का अस्थाई घर है। देवेन्द्र, जो पास में ही बल्देवगढ़ तक जाने वाली एक पाइप लाइन से टपकते हुए पानी को एक बर्तन में इकठ्ठा कर रहा है। सहारिया आदिवासी समुदाय से आने वाला देवेन्द्र मात्र 15 साल का है। वह जिले के आदिवासी गांव बाबाखेड़ा में अपनी दादी कल्लू के साथ रहता है। धूप ढलते ही वह गांव के पास वाले ईंट भट्टे पर काम कर रहे अपने मां-बाप के पास चला जाता है। वह अपने मां-बाप की मदद के लिए ईंट के सांचों की सफाई कर देता है, और पास लगे ट्यूवबेल से पानी ले आता है।
मगर उसकी दिनचर्या में पढ़ने के लिए स्कूल जाना नहीं है। दरअसल वह 5वीं कक्षा में था जब उसने स्कूल जाना छोड़ दिया। आस पास माहौल और लोग ऐसे नहीं थे कि वापस स्कूल जाने के लिए प्रेरित करते इसलिए तब जो पढ़ाई छूटी तो आज तक उसने किताबों का रुख नहीं किया।
भट्टे पर सूख चुकी ईंट पर बैठकर जा हम देवेन्द्र और उसके परिवार से बात करते हैं तो यह बात समझ आती है कि इनके जैसे कई और परिवार हैं जिनके साल के ज़्यादातर दिन पलायन पर गुज़रते हैं। आर्थिक संकट के बीच पढ़ाई की ज़रूरत गौढ़ हो जाती है और बच्चे शिक्षा से वंचित ही रह जाते हैं।
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प से पलायन, प से पढ़ाई
देवेंद्र अपने माता-पिता की इकलौती संतान है। उसके परिवार में 1.5 एकड़ खेती की जमीन है। मगर इससे साल भर खाने के लिए पर्याप्त अनाज भी नहीं निकलता। टीकमगढ़ या छतरपुर में ऐसा कोई काम आसानी से उपलब्ध नहीं है कि जिसे वे घर से 60 किमी के दायरे में रहकर काम कर सकें। सखी देवी अपने बेटे देवेंद्र को पढ़ाना चाहती हैं, लेकिन सरकारी स्कूल में पढ़ाई का स्तर और घर की आर्थिक स्थिति ऐसा करने का उत्साह नहीं देती। सखी कहती हैं,
“अब पढ़ तो पाय नइया जे, साल-दो-साल में जे भी बाहर जैं हमाए संगे कमावे।”
यानि देवेंद्र का भविष्य तय कर दिया गया है। आने वाले कुछ सालों में उसे भी अपने माता-पिता जैसे पलायन पर जाना होगा। इस साल के फ़रवरी माह तक उसके माता-पिता प्रदेश की राजाधानी भोपाल में ईंट बनाने का काम कर रहे थे। अभी रबी की फसल की कटाई के लिए वह गांव वापस आ गए हैं। उन्हें गांव के पास वाले ईंट भट्टे में लगभग दो महीने के लिए काम मिला है। मगर इसके बाद उन्हें पलायन करके दिल्ली जाना पड़ेगा। यह अकेले देवेन्द्र या उसके परिवार की कहानी नहीं है।
बाबाखेड़ा गांव टीकमगढ़ के जिला मुख्यालय से लगभग 25 किमी दूरी पर बल्देवगढ़ ब्लॉक की करमासन हटा ग्राम पंचायत में हैं। इस पंचायत में करमासन हटा, करमासन घाट और बाबाखेड़ा गांव है। इसके अलावा आदिवासियों के छोटे-छोटे इलाके जिन्हें स्थानीय भाषा में खिरक कहते हैं, नर और सत्तन बसे हुए हैं।
इस पंचायत में लगभग 3500 की आबादी है। जिसमें से 450 आदिवासी और 650 एससी श्रेणी के लोगों की संख्या है। नर, सत्तन और बाबाखेड़ा की कुल आबादी 400 से अधिक है, इनमें ज्यादातर आदिवासी समाज के लोग निवास करते हैं। यह रबी की फसल की कटाई का समय है, इसलिए बाबाखेड़ा में लोग खेती के काम से फुरसत होकर एक साथ बैठकर मनोरंजन कर रहे हैं। साल के बाकी महीनों में गांव ऐसा नहीं दिखता। ज्यादातर घरों में ताले पड़े रहते हैं। कई घर हाल में भी ऐसे हैं जिनमें रहने वाले लोग भोपाल, दिल्ली या अन्य जगहों से वापस गांव नहीं आए हैं।
अनुमानित तौर पर गांव से लगभग 200 से अधिक की संख्या में पति-पत्नि के जोड़े और काम करने वाले युवक गांव छोड़कर बड़े शहरों में रोजगार ढ़ूंढकर काम करने लग जाते हैं। इस बीच बहुत सारे बच्चे और वृद्ध यहीं छूट जाते हैं। ये बच्चे भी कभी-कभी मां-बाप को याद करते हैं और हर साल दिवाली और चैत्र का इंतजार करते हैं। यही समय होता है जब शहर से मां-बाप बच्चों के लिए नए कपड़े लेकर आते हैं।
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सत्तन गांव का छोटा सा रिहायशी इलाका है। इसमें लगभग 15 से 20 परिवारों के घर हैं। यहां रहने वाले विजय कुमार सहारिया की कहानी का एक छोर देवेन्द्र से लगता है। वह भी देवेंद्र के पिता की तरह दिल्ली गए थे। मगर मज़दूरी करने नहीं, 'नौकरी' करने।
सड़क किनारे बने घर की पट्टी पर बैठे विजय की उम्र लगभग 30 साल है। विजय गांव में सबसे पढ़े-लिखे युवक हैं। इन्होंने बीएड किया हुआ है। इनके पिता सरकारी शिक्षक हैं इसलिए इनके घर में पढ़ाई-लिखाई को प्राथमिकता दी गई है। विजय सरकारी नौकरियों के लिए तैयारियां करते रहे हैं मगर भर्तियों की खासी कमी की वजह से उन्हें कोई सरकारी नौकरी नहीं मिली।
विजय का घर सत्तन में अकेला घर है, जिसके घर के लोग बाहर के शहरों में कमाने नहीं जाते हैं और बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देते हैं, विजय खुद के बाहर जाने पर बात करते हुए कहते हैं,
“कुछ समय बाद ही सत्तन खाली हो जाएगा। लोग बाहर चले जाएंगे। मैं भी बाहर गया था। पीएम कौशल की मदद से मिंत्रा में काम मिला था। दिल्ली के प्रदूषण से तबीयत खराब हो गई तो पैसा बर्बाद हुआ और वापस भी आ गया। सरकार नौकरियां नहीं निकाल रही है। इसलिए सरकारी नौकरी भी नहीं मिल पायी है।”
बाबाखेड़ा में 1 से 5 तक के लिए प्राईमरी स्कूल है, इसके बाद 6 से 8 तक के लिए मिडल स्कूल करमासन हटा में है। इसके बाद 9 से 12 तक की पढ़ाई के लिए सरकारी आवासीय विद्यालय अहार गांव में है। जो लगभग 5 किमी दूर है। ऐसे में कई माता-पिता अपने बच्चे को इस अवासीय विद्यालय में छोड़कर बाहर मजदूरी करने चले जाते हैं। लेकिन वे बच्चे भी कुछ समय में स्कूल छोड़ने के साथ पढ़ाई भी छोड़ देते हैं। विजय बताते हैं,
“हर साल टीचर बच्चों को स्कूल आने के लिए कहते हैं, लेकिन एक या दो बच्चे होते हैं, तो वे नहीं जाते। अभी तक केवल एक बार ही 6 बच्चे एक साथ आवासीय विद्यालय गए थे वे भी साल पूरा होने से पहले ही भाग आए।”
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लोग पलायन क्यों करते हैं?
स्थानीय ग्रामीण कहते हैं कि यहां लोगों के पास ज़मीन कम है। ऊपर से पानी की कमी पैदावार को और कम कर देती है। इससे ग्रामीण इलाके में एक एकड़ पर औसतन 30 हजार रुपए की कमाई होती है, जिसमें लगभग 5 से 8 हजार तक न्यूनतम खर्च आता है। इसके साथ-साथ रोजगार के कम अवसर भी लोगों को स्थान छोड़ने के लिए मजबूर करते हैं। जहां ज्यादा काम की ज्यादा कीमत मिल रही होती है, लोग वहां पलायन कर जाते हैं। कर्ज में फंसे परिवार अपने बच्चों को वापस कर्ज या गरीबी की स्थिति में नहीं देखना चाहते हैं इसलिए भी पलायन कर जाते हैं। मगर पलायन का यह दुश्चक्र कभी ख़त्म नहीं होता।
मगर लोग गांव में ही रहें और काम कर सकें तो? इस सवाल का जवाब है महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानि मनरेगा. मगर बुंदेलखंड में मनरेगा का कम काम मिलना और समय से भुगतान न होना बड़ी समस्याएं है। जिसकी वजह से पलायन रोककर स्थानीय रोजगार के लिए चलाई गई सरकारी योजना धरातल पर पस्त नजर आती है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में 94.47 प्रतिशत मनरेगा के कामों को पूरा किया गया लेकिन 2023-24 और 2024-25 में यह आंकड़ा गिरकर 59.82 और 23.69 प्रतिशत हो गया है। मनरेगा के अंतर्गत किए पूरे किए जाने वाले कामों की संख्या में भारी गिरावट आई है। इससे सीधे तौर पर लोगों को मिलने वाले रोजगार में भी कमी आई है।
पलायन में बड़ी संख्या गैर खेतीहर मजदूर की होती है। ये फैक्टरी, कंस्ट्रक्शन, या सेमी स्किल्ड मजदूर के रूप में काम करते हैं। गांव वालों के अनुसार राज मिस्त्री को 600 से 800 रुपए जबकि सेमी स्किल्ड लेबर को 400 से 600 रुपए दिहाड़ी के रूप में मिलते हैं। लेकिन इसमें भी एक साइट से काम खत्म होने पर दूसरी साइट में काम मिलने तक कई दिनों तक बेरोजगार बैठना पड़ता है।
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कल्लू आदिवासी, 45 दिल्ली में भवन निर्माण में मज़दूर का काम करते हैं। कल्लू बताते हैं कि दिल्ली में 2 हजार या 3 हजार में कमरा लेकर परिवार के साथ रहते हैं। कुछ लोग और मजदूरों के साथ भी रह लेते हैं। ऐसे में किराया बंट जाता है। पहले गांव में खेती का काम ज्यादा मिल जाता था, लेकिन मशीनों से जल्दी काम हो जाता है, इसलिए अब वो भी नहीं मिल पाता। गांव में पहले मनरेगा का काम मिलता था, अब तो वो भी नहीं है।
मनरेगा के काम की जानकारी के लिए ग्राउंड रिपोर्ट ने सरपंच नंदराम लोधी से संपर्क किया वे बताते हैं,
“मनरेगा के काम में लोगों को कम पैसा मिलता है, इसलिए वे 243 रुपए में काम करने क्यों आएंगे। लेबर को पैसों की जरूरत हाल में होती है लेकिन पैसा लेट हो जाता है।”
यूएनडीपी की रिपोर्ट के हिसाब से पलायन की वजह से बुंदेलखंड में बच्चों की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित होती है, उन्हें सही मार्गदर्शन और देखरेख में कमी का सामना करना पड़ता है। ज्यादातर बच्चे फुल टाइम या पार्ट टाइम काम करके परिवार के आर्थिक स्थिति में मदद करने लगते हैं।
असर द्वारा जारी की जाने वाली एनुअल स्टेटस ऑफ एडुकेशन रिपोर्ट 2024 भी बतलाती है कि मध्य प्रदेश में 15 साल से अधिक के बच्चों में 15 प्रतिशत से अधिक स्कूल ही नहीं जा रहे हैं। यह तथ्य हमें वापस देवेंद्र की याद दिलाता है। देवेंद्र जिसने स्कूल बहुत पहले छोड़ दिया है। जिसकी मां हमसे बात करते हुए कहती हैं कि उनका यह बेटा पढ़ नहीं पाया और अबी आने वाले कुछेक साल में वो कमाने के लिए पलायन पर चला जाएगा। इस तरह पलायन का यह दुश्चक्र एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता जाता है।
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