Ground Report । Nehal Rizvi
पिछली सदी प्रतिरोध की कविताओं की सदी रही है और इसके झंडाबरदारों में सबसे उल्लेखनीय नामों में से एक नाम फ़ैज़ का है। उनका नाम एशिया के महानतम कवियों में शुमार है। साम्यवादी विचारधारा में यक़ीन रखने वाले फ़ैज़ पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे और प्रगतिशील आंदोलन के महारथियों में थे। 13 फरवरी 1911 में पंजाब के नारनौल कस्बे में पैदा हुए। जिंदगी की कशमकश, नाइंसाफी के खिलाफ बगावत ने उनकी शायरी को इतनी मकबूलियत अता की।

बंटवारे के बाद फ़ैज़ पाकिस्तान चले गए। नाइंसाफी, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ मुखरता से लिखने वाले शायर के रूप में मक़बूल हुए फ़ैज़ को अपने लेखन के लिए जेल जाना पड़ा। उन पर चौधरी लियाक़त अली ख़ान का तख़्ता पलटने की साज़िश करने के आरोप लगे। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और वे करीब पांच साल जेल में रहे। जेल में रहने के दौरान तमाम नायाब रचनाओं को शक्ल दी जो उनके दो संग्रहों ‘ज़िंदानामा’ और ‘दस्ते-सबा में दर्ज हैं। 1977 में तख़्तापलट हुआ तो उन्हें कई बरसों के लिए मुल्क़ से बेदख़ल कर दिया गया।

1978 से लेकर 1982 तक का दौर उन्होंने निर्वासन में गुज़ारा। हालांकि, फ़ैज़ ने अपने तेवर और विचारों से कभी समझौता न करते हुए कविता के इतिहास को बदल कर रख दिया। पाकिस्तानी गायिका नूर जहां ने ‘मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’ को अपनी आवाज दी, तो गजल गायक जगजीत सिंह ने ‘चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले’ को अपने सुरों में पिरो दिया। और अमर कर दिया। ये वो ग़ज़ल थी जिसको फैज़ अहमद फैज़ ने 1954 में मांटगोमरी जेल में लिखा।

फैज अहमद फैज सियालकोट के मशहूर बैरिस्टर सुल्तान मुहम्मद खां के घर पैदा हुए। पांच बहनें और चार भाई थे। छोटे थे। दुलारे तो होते ही। फैमिली बेहद ही इस्लामिक थी। स्कूल में अव्वल आते रहे और शायरी करने लगे। उनकी जिंदगी के किस्से तो बहुत हैं। मगर यहां उनकी जिंदगी का मुख़्तसर सा तब्सिरा है। उन्हें कम्युनिस्ट कहा गया। इस्लाम के खिलाफ भी बताया गया। लेकिन उनका कहना था कि ये उनपर सिर्फ इल्ज़ाम हैं सच नहीं।

युवा आलोचक एवं शोधकर्ता आशीष मिश्र कहते हैं, ‘जब हमारे देश का बंटवारा हुआ तो नदियां, पहाड़, रेगिस्तान, कुर्सी-मेज और और कलमदान तक बांट दिए गए लेकिन एक चीज़ जो नहीं बांटी जा सकी वह थीं कलाएं। कलाएं इस विभाजन और उन्माद के ख़िलाफ़ लगातार लड़ती रहीं। इस विभाजन के पीछे काम करने वाली ताक़तों को पहचानती रहीं। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कला के इसी धारा के संग-ए-मील हैं और जीवन को वहां से देखते हैं जहां प्रेम और क्रांति में कोई अंतर्विरोध नहीं है।’

वे अवाम की भावनाओं को हवा देने वाले और सियासत के लिए असुविधा पैदा करने वाले शायर हैं। क्रांतिकारी विचारधारा के लोग उनकी कविताओं के पोस्टर लगाते हैं, प्रेमी युगल उनका संग्रह सिरहाने रखते हैं तो काव्य प्रेमी उन्हें कविता में संघर्ष, प्रेम और सौंदर्य के अदभुत सम्मिलन के लिए पढ़ते हैं। उनकी कविताओं में तमाम मुल्कों के बेसहारा लोगों और यतीमों की आवाज़ें दर्ज़ हैं जो उन्हें लगातार एक जद्दोजहद करते हुए शायर के रूप में स्थापित करती हैं। फ़ैज़ को गुज़रे हुए क़रीब 31 साल गुज़र चुके हैं। लेकिन वे अपने दौर के शायर लगते हैं जिनके पास दुनियावी संघर्ष का हौसला भी मिलता है तो ज़ाती भावनाओं के लिए बेहद कारगर मरहम भी मौजूद है।

फैज़ हमेशा यही कहते रहे कि वो बेवजह ही जेल में डाले गए। उनका रावलपिंडी केस में कोई हाथ नहीं था। ये ही बात उनके करीबी और रिश्तेदार मानते थे। 1963 में उन्हें सोवियत रूस से लेनिन शांति पुरस्कार मिला। 1984 में नोबेल प्राइज के लिए उनका नामांकन किया गया था। और फिर 20 नवंबर 1984 का वो दिन आया जब उर्दू शायरी का एक बड़ा सितारा इस जहां से परवाज कर गया।