52 वर्षीय किसमल वासुनिया झाबुआ के उदयपुरिया गाँव के रहने वाले हैं. यह गाँव मध्यप्रदेश के उस हिस्से में आता है जहाँ से दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस वे गुज़रता है. उदयपुरिया गांव इस एक्सप्रेस वे के किनारे है. लेकिन किसमल के अनुसार ‘सड़क उनके खेत से निकली है’. दरअसल किसमल पहले 6 बीघा ज़मीन पर खेती करते थे. मगर इसमें से केवल 3 बीघा ज़मीन ही आधिकारिक रूप से उनकी है. शेष 3 बीघा ज़मीन सरकारी थी जिसे सरकार ने साल 2021 में इस प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित कर लिया था. खेत का क्षेत्रफल आधा होने से फ़सल भी आधी हो गई. किसमल कहते हैं कि परिवार का पेट भरने के लिए अपने बेटे के साथ अब उन्हें भी मज़दूरी करने के लिए गुजरात जाना पड़ेगा.
आदिवासियों को क्या मिला?
यह एक्सप्रेसवे ज़िले के मेघनगर और थांदला तहसील के अंतर्गत आने वाले गाँवों से गुज़रता है. इस ज़िले में एक्सप्रेसवे की लम्बाई 50.5 किमी है. केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के अनुसार यह प्रोजेक्ट अगले साल फरवरी तक पूरा हो जाएगा. लगभग 1 लाख करोड़ की लागत से बन रहे इस एक्सप्रेसवे के चलते दिल्ली से मुंबई का रास्ता कार के ज़रिये मात्र 12 घंटे में पूरा किया जा सकेगा. मगर सवाल है कि इस एक्सप्रेसवे से मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल में रहने वाले इन आदिवासियों को क्या मिला?
“हमें कोई भी फायदा नहीं हुआ है. सिर्फ़ घाटा ही हुआ है.” किसमल वासुनिया गुस्से से कहते हैं.
“पहले हम खुद को किसान कहते थे. अब तो मज़दूरी करके ही पेट पालना पड़ेगा.”
यहाँ रह रहे ज्यादातर आदिवासियों का कहना है कि जिस ज़मीन पर वे लोग पीढ़ियों से रहते और खेती करते आए हैं सरकार ने सड़क बनाने के लिए एक झटके में उनसे वह ज़मीन छीन ली है. इससे न सिर्फ़ उनकी आजीविका पर संकट आया है बल्कि उनकी पहचान भी बदल गई है. इसे समझाते हुए इस गाँव के एक व्यक्ति कहते हैं,
“जिन लोगों के खेत थोड़े से बचे हैं वो अब बारहमासी मज़दूर बन जाएँगे…हम लोग तो इस सड़क के किनारे पानी की बोतल तक नहीं बेच सकते.”
रोज़गार का सवाल
प्रदेश के इस हिस्से में ज़्यादातर लोग अपनी आजीविका के लिए पलायन करते हैं. साल के ज़्यादातर दिन ये लोग ज़िले की सीमा से सटे गुजरात में मजदूरी करते हैं. मानसून का समय इनके घर लौट आने का समय होता है. इस दौरान बारिश के पानी से ये लोग एक फसल लेते हैं जिससे साल भर के लिए पैसे का जुगाड़ होता है. सरकार के अनुसार इस एक्सप्रेस वे से देश के 50 लाख लोगों को रोज़गार मिलना था. मगर उदयपुरिया के ही प्रेम सिंह (45) बताते हैं,
“जब यहाँ सड़क बनी तो जाने कहाँ-कहाँ से मज़दूर आए और काम करके चले गए. मगर हमारे गाँव के लोगों को कोई रोज़गार नहीं मिला.”
बढ़ता पलायन
उदयपुरिया से करीब 60 किमी दूर स्थित कल्देला गाँव के बाद्दू भूरिया (68) के लिए आने वाले दिनों में खेती से कोई भी आशा करना लगभग न मुमकिन हो जाएगा. पहले वह क़रीब 1 हेक्टेयर (8.96 बीघा) में खेती करते थे. मगर 2 साल पहले उनकी ‘खड़ी फसल को उजाड़ कर उस पर एक्सप्रेस वे बना दिया’ गया. वह कहते हैं,
“उस साल कपास का भाव 10 हज़ार (प्रति क्विंटल) था. मेरे खेत से 20 क्विंटल तक कपास निकलता मगर उन्होंने हमें फसल भी काटने नहीं दिया.”
दरअसल बाद्दू और उनकी तरह अन्य गांव वालों को सरकार द्वारा इससे पहले 2 बार ज़मीन खाली करने की चेतावनी दी गई थी मगर तब तक वह कपास की फ़सल बो चुके थे. उन्हें उम्मीद थी कि सरकार उनकी फ़सल तैयार होने तक निर्माण कार्य नहीं करेगी. मगर जिस दिन आधिकारिक अमला सड़क बनाने के लिए जगह खाली कराने आया उस दिन उन्होंने भूरिया और बाकी लोगों की एक ना सुनी.
बेघर हुए लोग
भूरिया के पास केवल 1 बीघा ज़मीन बची है जो उनके बाद 2 बेटों में बाँट दी जाएगी. उनका मानना है कि यह ज़मीन उनके बेटों के लिए पर्याप्त नहीं होगी. ऐसे में उनके “बच्चे भी पलायन करके गुजरात चले जाएँगे.” किसमल वासुनिया बताते हैं कि जो लोग सरकारी ज़मीन पर रह रहे थे वह बेघर हो गए हैं. वह कहते हैं,
“गाँव के लोग बहुत बार एसडीएम के पास गये और उनको बताया कि हम यहाँ 3-4 पीढ़ी से रह रहे हैं. मगर हमारी कोई सुनवाई नहीं हुई.”
किसमल की बात में जोड़ते हुए उनके भाई प्रेमसिंह वासुनिया कहते हैं, “क़रीब 100 लोग एसडीएम के पास गए थे और उनसे कहा कि इस ज़मीन के बदले हमें कुछ तो दीजिए. इस पर एसडीएम ने हँसते हुए कहा था कि वो तो सरकार की ज़मीन थी अब सरकार को ज़रूरत पड़ी तो उसने ले ली.”
कानून क्या कहता है?
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच में वकालत करने वाले प्रत्यूष मिश्र भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम, 2013 के हवाले से बताते हैं,
“कानून की धारा 41 के अनुसार जहाँ तक संभव हो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों से सम्बंधित क्षेत्रों का भूमि अधिग्रहण नहीं हो, अगर अधिग्रहण करना आवश्यक हो तो इसे आखरी विकल्प के रूप में ही करना होगा और सकारण निष्कर्ष के साथ कि यह आखरी विकल्प क्यों है.”
हालाँकि यहाँ के स्थानीय लोग बताते हैं कि इस तरह की कोई भी जानकारी उन्हें नहीं दी गई है.
आर्थिक न्याय का सवाल
स्थानीय आदिवासियों का मानना है कि यह मसला केवल ज़मीन का नहीं है. चूँकि इस ज़मीन से उनकी आजीविका के अलावा अस्मिता और इतिहास भी जुड़ा है अतः ऐतिहासिक तौर पर आदिवासी इस ज़मीन के अधिकारी हैं. रमेश कटारा (30) पूछते हैं, “सरकार हमें यह बताये कि जब अंग्रेज़ इधर आये थे तो उनसे हमारे पुरखे लड़े थे या सरकार लड़ी थी?” वहीँ कानून की पढ़ाई कर रहे रवि कटारा (23) कहते हैं कि संविधान में हर नागरिक के साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय की बात कही गई है मगर इस तरह से ज़मीन ले लिए जाने पर न तो सामाजिक और ना ही आर्थिक न्याय सुनिश्चित हो पाता है.
प्रशासन का पक्ष
ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए झाबुआ ज़िले की कलेक्टर तन्वी हुड्डा कहती हैं,
“परियोजना से प्रभावित लोगों को उचित मुआवज़ा दिया गया है.”
वहीँ पलायन रोकने और रोज़गार मुहैय्या करवाने की बात पर उन्होंने कहा कि लोगों को नरेगा के तहत 100 दिन का रोज़गार दिया जाता है साथ ही रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा यहाँ इंडस्ट्री भी विकसित की जा रही है. हालाँकि यहाँ के लोग इस औद्योगिक क्षेत्र के विकास का भी विरोध कर रहे हैं. इनका मानना है कि इसके चलते उन्हें एक बार फिर ज़मीन गँवानी पड़ेगी.
लम्बी होती सड़कें
जिस दिल्ली-मुम्बई एक्सप्रेसवे के चलते झाबुआ के इन आदिवासियों की आजीविका और संवैधानिक मूल्यों पर आघात किया जा रहा है वह सरकार की महत्वकांक्षी भारतमाला परियोजना के फेज़-1 का हिस्सा है. इस फेज़ के तहत कुल 24 हज़ार 800 किमी लम्बी सड़क बनाई जानी है. वहीँ इस एक्सप्रेस वे की मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले से गुज़रात के वडोदरा ज़िले तक की लम्बाई 211.49 किमी होगी. इसी दूरी के अंतर्गत झाबुआ के यह गांव आते हैं.
बीते कुछ सालों में देश में सड़कों का जाल तेज़ी से बढ़ा है. साल 2014 तक देश में राष्ट्रिय राजमार्गों (National Highways) की कुल लम्बाई 91 हज़ार किलोमीटर थी. जो दिसंबर 2018 तक बढ़कर 1 लाख 29 हज़ार किमी हो गई. केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने सरकार की उपलब्धता बताते हुए कहा कि सरकार ने वित्तीय वर्ष 2017-18 में प्रतिदिन 27 किलोमीटर सड़क बनाई जिसे वह आने वाले वर्षों में 35 किमी तक ले जाएँगे.
लम्बा होता संघर्ष
इन सड़कों के बनने से भले ही दिल्ली से मुंबई और अन्य शहरों के बीच का रास्ता कम हो गया हो मगर मध्यप्रदेश के इस आदिवासी क्षेत्र के कल्देला गाँव के लोगों से बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं की दूरी बढ़ गई है. कांतिलाल वेस्ता बताते हैं कि एक्सप्रेस-वे के निर्माण के दौरान बिजली का खम्बा हटा दिया गया था. इसकी जगह दूसरा खम्बा लगाने के लिए गाँव के लोगों द्वारा बिजली ऑफिस में कई बार शिकायत की गई मगर खम्बा आज तक नहीं लगा. वेस्ता कहते हैं,
“हम हज़ार मीटर दूर से बिजली लाइन ला रहे हैं. किसी भी विभाग (बिजली विभाग) वाले आएँगे हम पर बिजली चोरी का इल्जाम लगा देंगे.”
इसके अलावा ये लोग करीब 2 से 3 किमी दूर से पीने का पानी ला रहे हैं क्योंकि गाँव में जो जलाशय हुआ करता था उसके ऊपर से अब हाइवे गुज़र रहा है. गाँव वाले कहते हैं कि यह पानी पशुओं को नहलाने के तो काम आता है मगर पीने लायक नहीं बचा है.
मसले पर आधिकारिक पक्ष रखते हुए झाबुआ कलेक्टर कहती हैं,
“लोगों की शिकायत को प्रशासन द्वारा देखा जा रहा है. आचार संहिता हटने के बाद इन प्रस्तावों पर उचित कार्यवाही की जाएगी.”
हालाँकि हमने चुनाव के बाद भी स्थानीय निवासियों से फ़ोन के माध्यम से यह पता करने की कोशिश की कि इस मामले में अब तक क्या हुआ है? उनका कहना है कि बिजली के खम्बे अब भी नहीं लग पाए हैं.
ऐसे में हाइवे बन जाने के बाद कुछ दिनों में वाहनों की आवाजाही भी शुरू हो जाएगी. ज़ाहिर है यह देश का आखिरी एक्सप्रेसवे नहीं है. ‘न्यू इंडिया’ में सड़कों का बढ़ता जाल विकास का सूचक है. मगर सवाल अब भी अनुत्तरित है कि विकास के इस मॉडल से आदिवासियों को क्या मिला?
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