All That Breathes Review in Hindi | वो चीज़ जो सांस लेती है उसमें फर्क नहीं होना चाहिए, लेकिन जब नदीम और साउद एक घायल चील को इलाज के लिए नज़दीकी अस्पताल लेकर जाते हैं, तो उसे वहां इलाज नहीं मिलता। उनसे कहा जाता है कि चील एक नॉन वेज पक्षी है इसलिए इसका इलाज हम नहीं करते। और यहीं से शुरु होता है नदीम और साउद का घायल चीलों को बचाने का सिलसिला…और 'फर्क' खत्म करने का एक प्रयास..
"हम फर्क करते हैं, हर उस चीज़ के बीच जो सांस लेती है" शौनक सेन की डॉक्यूमेंट्री 'ऑल दैट ब्रीद्स' (All That Breathes) इसी फर्क को कम करने का प्रयास करती है।
नदीम और साउद दो भाई, दिल्ली के संकरी गलियों के बीच रहते हैं, जहां वो अपने थोड़े बहुत अनुभव के साथ चीलों को रेस्क्यू करने का काम शुरु करते हैं। साल 2010 में वो वाईल्ड लाईफ रेस्क्यू नाम से एनजीओ की शुरुवात करते हैं। समय के साथ ईलाज के लिए लाई जाने वाली चीलों की संख्या बढ़ती जाती हैं और सीमित संसाधनों के बीच काम करना मुश्किल होता जाता है, लेकिन दोनों भाई इस काम को जारी रखते हैं।
एक दर्शक के रुप में फिल्म देखते हुए यह ख्याल आता है कि 'कैसे कोई इंसान तंग गलियों के बीच, सीमित संसाधनों में, परिवार के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी के साथ उस पक्षी के बारे में सोच सकता है, जिससे हर कोई घिन करता हो, डरता हो?
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'उनके पेट में मिलते हैं सिगरेट के बट्स'
ऑल दैट ब्रीद्स (All That Breathes) इंसानों द्वारा किये जा रहे प्रकृति के विनाश को समझाने में साकार होती है, यह हमें बताती है कि पृथ्वी पर मौजूद हर जीव का अपना महत्व है…उनके बिना जीवन का संतुलन बिगड़ सकता है। जिस तरीके से हमने विकास की अंधी दौड़ में संसाधनों का विनाश किया है उससे हवा और ज़मीन पर रहने वाले जीवों का संघर्ष भी बढ़ा है। दिल्ली में बढ़ती आबादी, प्रदूषण और तापमान से सिर्फ इंसान ही परेशान नहीं है बल्कि पक्षी और जानवर भी तमाम तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं।
फिल्म में एक किरदार कहता है कि अगर चीलें न हो तो दिल्ली के कूड़े का पहाड़ और ज्यादा ऊंचा हो जाएगा, चीलें हमारी गंदगी को साफ करने का काम करती हैं…
क्लाईमेट चेंज के बीच किस तरह से पक्षी और जानवर बचे रहने का संघर्ष कर रहे हैं, यह डॉक्यूमेंट्री देखकर एहसास होता है।
ऑल दैट ब्रीद्स (All That Breathes), दिल्ली में उस समय फिल्माई गई है जब पूरे देश में सीएए और एनआरसी को लेकर आंदोलन हो रहे थे, भारत के मुसलमानों में एक डर पैदा किया जा रहा था कि उन्हें यह देश छोड़कर जाना होगा। डॉक्यूमेंट्री में बहुत ही सहज तरीके से एक मुस्लिम परिवार के मन की बेचैनी को दिखाने का प्रयास किया गया है। यह फिल्म के केंद्र बिंदू 'फर्क' को और ज्यादा प्रभावी तरीके से उभारने का भी काम करता है।
'नफ़रत अब घिन में बदल चुकी है'
दिल्ली में सीएए एनआरसी विरोध प्रदर्शनों के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों की झलक इस डॉक्यूमेंट्री में देखने को मिलती है। पता चलता है कि किस तरह से इंसानों के बीच की नफरत अब घिन में बदल चुकी है।
ऑल दैट ब्रीद्स (All That Breathes) बढ़े ही ठहराव के साथ दर्शक से संवाद करती है, हर दृश्य हमारी चेतना में एक वाक्य गढ़ रहा होता है। दो भाईयों के बीच के संवाद उनके संबंधों की जटिलता और उनके बीच की सहजता का एहसास करवाते हैं। हर कठिनाई को पार कर चीलों को बचाने का संकल्प यह ज़ाहिर करता है कि बिना किसी काम में डूबे मंज़िल नहीं पाई जा सकती।
डॉक्यूमेंट्री की एडिटिंग आंखों को कष्ट नहीं पहुंचाती, कोई भी दृष्य गैर ज़रुरी नहीं लगता, दृष्यों का सीक्वेंस अंत तक डॉक्यूमेंट्री के साथ दर्शक को जोड़े रखता है। फिल्म देखने के बाद आपके भीतर कई विचार तैरने लगते हैं, आप थोड़ा ठहरकर सोचने लगते हैं।
जो लोग डॉक्यूमेंट्रीज़ देखना पसंद करते हैं उन्हें ऑल दैड ब्रीद्स (All That Breathes) ज़रुर देखना चाहिए, शौनक सेन द्वारा निर्देशित इस डॉक्यूमेंट्री को ऑस्कर्स में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री फीचर में नॉमिनेशन हासिल हुआ था। यह भारतीय डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर्स का हौंसला भी बढ़ाती है।
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